मंदिर का चढ़ावा (Mandir ka chadawa Kahani)

गाँव के किनारे एक पुराना मंदिर था। बरसों से वहाँ की मिट्टी में इतिहास की खुशबू बसी थी। मंदिर छोटा-सा था, पर उसकी महिमा दूर-दूर तक फैली थी। लोग कहते थे कि यहाँ जो भी सच्चे मन से मन्नत माँगता है, उसकी मुराद पूरी होती है। मंदिर में एक मूर्ति थी—माँ काली की। उसकी आँखें ऐसी थीं कि देखने वाला एक बार को डर जाए, पर फिर उसमें एक अजीब-सा सुकून भी पाए। हर साल चैत की नवरात्रि में यहाँ मेला लगता था। दूर-दराज से लोग आते, मन्नत माँगते, और चढ़ावा चढ़ाते। कोई सोने की अँगूठी देता, कोई चाँदी का छल्ला, तो कोई अपनी हैसियत के मुताबिक फूल-माला। पर इस बार की कहानी कुछ और थी।
गाँव में रहता था श्यामलाल। उम्र होगी कोई पैंतीस बरस। चेहरा साँवला, कद मझोला, और आँखों में एक चमक जो कभी हँसी की होती, कभी चालाकी की। श्यामलाल गाँव का ठठेरा था। पीतल के बर्तन बनाता, गाँव-गाँव घूमकर बेचता। मेहनत उसकी कम थी, और दिमाग की चालें ज़्यादा। उसकी बीवी राधा उसे अक्सर ताने मारती, “काम-धंधा करो, श्यामलाल, यूँ चालाकी से पेट नहीं भरता।” पर श्यामलाल हँसकर टाल देता, “अरे, मेरे दिमाग में ऐसा खजाना है, जो हमें एक दिन मालामाल कर देगा।”
नवरात्रि का मेला नज़दीक था। गाँव में चर्चा थी कि इस बार मंदिर का चढ़ावा पिछले साल से भी ज़्यादा होगा। लोग कहते थे कि मंदिर के पुजारी पंडित रामदास ने सपने में देखा था कि माँ काली इस बार कुछ बड़ा माँग रही हैं। श्यामलाल ने यह बात सुनी तो उसके दिमाग में लड्डू फूटने लगे। उसने सोचा, “अगर मंदिर का चढ़ावा मेरे हाथ लग जाए, तो फिर क्या कहना! न राधा के ताने सुनने पड़ेंगे, न बर्तन ठोकने की मेहनत करनी पड़ेगी।”
श्यामलाल ने योजना बनाई। मंदिर के पीछे एक छोटा-सा कमरा था, जहाँ चढ़ावे का सामान रखा जाता था। हर रात मेला खत्म होने के बाद पंडित रामदास वहाँ ताला लगा देते थे। श्यामलाल ने सोचा कि अगर वह उस कमरे में घुस जाए और चढ़ावे का कुछ हिस्सा चुरा ले, तो किसी को शक भी नहीं होगा। मेले की भीड़ में कौन हिसाब रखेगा कि कितना चढ़ा और कितना बचा?
पहली नवरात्रि की रात को श्यामलाल मंदिर पहुँचा। हाथ में एक माला थी, माथे पर टीका लगाया हुआ था, ताकि कोई उसे भक्त समझे। भीड़ में वह चुपके से मंदिर के पीछे चला गया। कमरे का ताला पुराना था, और श्यामलाल को ताले तोड़ने का हुनर बचपन से आता था। उसने एक पतली सी तार निकाली और चट से ताला खोल दिया। अंदर घुसते ही उसकी आँखें चमक उठीं। वहाँ सोने-चाँदी के ज़ेवर, नोटों की गड्डियाँ, और ढेर सारा सामान रखा था। उसने जल्दी-जल्दी एक थैले में सामान भरना शुरू किया।
तभी उसे एक अजीब-सी आवाज़ सुनाई दी। जैसे कोई फुसफुसा रहा हो। वह चौंका, इधर-उधर देखा, पर कोई नहीं था। उसने सोचा, “शायद हवा का शोर है।” फिर वह काम में जुट गया। लेकिन जैसे ही उसने थैला उठाया, उसे लगा कि कोई उसे देख रहा है। उसने पीछे मुड़कर देखा—माँ काली की मूर्ति उसी की ओर ताक रही थी। श्यामलाल का दिल धक-धक करने लगा। उसने खुद को समझाया, “अरे, यह तो पत्थर की मूर्ति है, मुझे क्या डरना?” पर उसकी हिम्मत जवाब दे रही थी। वह थैला लेकर भागने ही वाला था कि मंदिर की घंटी अपने आप बज उठी।
गाँव वाले चौंके। पंडित रामदास दौड़ते हुए आए। श्यामलाल समझ गया कि अब बचना मुश्किल है। उसने थैला वहीं छोड़ दिया और भागने की कोशिश की, पर भीड़ ने उसे घेर लिया। पंडित जी ने पूछा, “श्यामलाल, यहाँ क्या कर रहा है?” श्यामलाल हकला गया, “मैं… मैं तो माँ के दर्शन करने आया था।” पर उसकी हालत और थैला देखकर सब समझ गए। गाँव वालों ने उसे पकड़ लिया और पंचायत के सामने पेश किया।
पंचायत में सजा सुनाई गई—श्यामलाल को मंदिर की साफ-सफाई और सेवा में एक महीना बिताना होगा। राधा को जब यह बात पता चली, तो वह रोते हुए बोली, “मैंने कहा था न, चालाकी छोड़ दो, पर तुमने सुनी कहाँ?” श्यामलाल चुप रहा। उसे अपनी गलती का एहसास हो चुका था।
अगले दिन से वह मंदिर की सेवा में जुट गया। सुबह झाड़ू लगाता, फूल चढ़ाता, और माँ काली की मूर्ति के सामने सिर झुकाता। पहले तो वह मजबूरी में यह सब कर रहा था, पर धीरे-धीरे उसे अजीब-सा सुकून मिलने लगा। मंदिर की शांति, घंटियों की आवाज़, और भक्तों की भक्ति में उसे कुछ ऐसा मिला, जो उसने पहले कभी नहीं महसूस किया था। एक दिन वह मूर्ति के सामने बैठा और बोला, “माँ, मैंने गलती की। मुझे माफ कर दो। अब कभी लालच नहीं करूँगा।”
उसी रात उसे सपने में माँ काली दिखीं। उनकी आँखों में वही चमक थी, पर इस बार डर की जगह करुणा थी। माँ ने कहा, “श्यामलाल, जो तूने लिया, वह मेरा चढ़ावा नहीं था। जो तूने छोड़ा, वही मेरा असली चढ़ावा है—तेरा लालच।” श्यामलाल की नींद खुली तो उसकी आँखें नम थीं। उसे समझ आ गया कि माँ ने उसे माफ कर दिया था।
महीना पूरा होने के बाद श्यामलाल वापस अपने काम पर लौटा। अब वह मेहनत से बर्तन बनाता और बेचता। राधा भी खुश थी। गाँव वाले उसकी तारीफ करने लगे कि श्यामलाल बदल गया है। पर श्यामलाल जानता था कि यह बदलाव उसकी मेहनत का नहीं, माँ काली के चढ़ावे का कमाल था। हर नवरात्रि में वह मंदिर जाता, एक फूल की माला चढ़ाता, और मन ही मन कहता, “माँ, तुमने मुझे मेरा असली खजाना दे दिया।”
गाँव में यह कहानी फैल गई। लोग कहते, “मंदिर का चढ़ावा सोने-चाँदी से नहीं, सच्चे मन से बनता है।” और श्यामलाल की ज़िंदगी उस मंदिर की तरह ही शांत और सम्मान से भर गई।