झोपड़ी का किराया (Garib Kumhar Ki Kahani)

garib kumhar ki kahani

गंगा के किनारे बसा था एक छोटा-सा गाँव, करौली। हरे-भरे खेतों और बरगद की छाँव में सिमटा यह गाँव बाहर से देखने में बड़ा सुकून भरा लगता था, पर अंदर की कहानी कुछ और ही थी। गाँव के एक छोर पर, जहाँ गंगा की लहरें किनारे से टकराती थीं, वहाँ एक टूटी-फूटी झोपड़ी खड़ी थी। उसमें रहता था रामू कुम्हार, उसकी पत्नी सरला और उनका सात साल का बेटा छोटू। रामू दिनभर चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाता, और सरला उन्हें गाँव के हाट में बेचने जाती। मेहनत बहुत थी, मगर कमाई इतनी कम कि पेट भरना मुश्किल हो जाता था। फिर भी, रामू और सरला ने कभी हिम्मत नहीं हारी। उनकी झोपड़ी भले ही कच्ची थी, पर उसमें प्यार और उम्मीद की गर्मी हमेशा बनी रहती थी।

लेकिन एक दिन यह सुकून टूट गया। गाँव के जमींदार, चौधरी रघुनाथ सिंह, के नौकर ने झोपड़ी के सामने आकर हुंकार भरी, “रामू, चौधरी साहब ने बुलाया है। अभी चल!” रामू के हाथ में मिट्टी का घड़ा था, जो अधूरा रह गया। उसने सरला की ओर देखा, जो छोटू को गोद में लिए चूल्हे के पास बैठी थी। सरला की आँखों में चिंता उभर आई, पर उसने कुछ कहा नहीं। रामू चुपचाप नौकर के पीछे चल पड़ा।

चौधरी की हवेली गाँव के बीचोंबीच थी। संगमरमर के फर्श, ऊँचे खंभे और चारों ओर फैली ठसक—यह जगह रामू जैसे गरीबों के लिए किसी दूसरी दुनिया-सी थी। चौधरी अपने तख्त पर बैठे थे, हाथ में हुक्का लिए। उनके चेहरे पर सख्ती थी, और आँखों में एक चालाक चमक। रामू ने हाथ जोड़कर सलाम किया।

“रामू,” चौधरी ने हुक्के का कश खींचते हुए कहा, “तेरी झोपड़ी जिस ज़मीन पर खड़ी है, वो मेरी है। अब तक तो मैंने कुछ कहा नहीं, पर अब किराया देना होगा।”

रामू के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। “हुजूर, ये झोपड़ी तो मेरे बाप-दादा ने बनाई थी। हमें कभी नहीं बताया कि ये आपकी ज़मीन है।”

चौधरी हँसे, उनकी हँसी में क्रूरता थी। “बाप-दादा की बात छोड़। कागज़ पर मेरा नाम है। अब हर महीने पचास रुपये किराया देना होगा। समझा?”

रामू का दिल बैठ गया। पचास रुपये! वह महीने भर में मुश्किल से सौ-डेढ़ सौ रुपये कमा पाता था। उसमें से आटा, दाल, नमक और छोटू की पढ़ाई का खर्च निकालना पड़ता था। किराया कहाँ से देगा? उसने गिड़गिड़ाते हुए कहा, “हुजूर, मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं। रहम करें।”

चौधरी ने ठंडी नज़र से उसे देखा। “पैसे नहीं हैं तो झोपड़ी खाली कर। मुझे उस ज़मीन पर गोदाम बनाना है। सात दिन का वक्त देता हूँ।”

रामू सिर झुकाए हवेली से बाहर निकला। रास्ते भर उसका दिमाग गूँजता रहा। सात दिन में पचास रुपये कहाँ से लाएगा? और अगर झोपड़ी छोड़ दी, तो उसका परिवार कहाँ जाएगा? गंगा के किनारे की वो छोटी-सी दुनिया ही उसकी जिंदगी थी। घर पहुँचते ही उसने सरला को सारी बात बताई। सरला की आँखें नम हो गईं, पर उसने हिम्मत नहीं हारी। “देखो जी, कुछ न कुछ रास्ता निकलेगा। भगवान पर भरोसा रखो।”

अगले दिन रामू ने गाँव के कुछ लोगों से मदद माँगी। किसी ने सहानुभूति दिखाई, किसी ने मुँह फेर लिया। गाँव में चौधरी का डर सबके सिर पर सवार था। कोई उससे उलझना नहीं चाहता था। रामू ने सोचा कि शायद हाट में ज्यादा बर्तन बेचकर कुछ पैसे जमा कर ले, पर उस दिन बारिश हो गई और हाट में सन्नाटा पसर गया। दो दिन बीत गए, और रामू के हाथ खाली रहे।

तीसरे दिन छोटू स्कूल से भागता हुआ आया। “अम्मा! मास्टर जी कह रहे थे कि चौधरी साहब गाँव की सारी ज़मीन अपने नाम करवा रहे हैं। कई लोगों को नोटिस भेजा है।” सरला का चेहरा पीला पड़ गया। उसने रामू को देखा, जो चाक पर बैठा उदास नज़रों से मिट्टी को गूँद रहा था। “सुन रहे हो? ये तो पूरा गाँव ही हड़प लेगा।”

रामू ने गहरी साँस ली। “हाँ, पर हम क्या कर सकते हैं? उसके पास पैसा है, ताकत है, कागज़ हैं। हम जैसे गरीबों की कौन सुनेगा?”

लेकिन सरला के मन में कुछ और चल रहा था। उस रात, जब छोटू सो गया, उसने रामू से कहा, “सुना है, शहर में एक वकील साहब हैं, जो गरीबों की मुफ्त में मदद करते हैं। कल सुबह मैं वहाँ जाऊँगी।” रामू ने विरोध किया, “शहर दूर है, और तुम अकेले कैसे जाओगी?” पर सरला ने उसकी बात काट दी। “अकेले ही सही, पर कोशिश तो करनी पड़ेगी।”

अगली सुबह सरला निकल पड़ी। गंगा के किनारे से नाव पकड़ी, फिर बस में बैठी और दो घंटे की यात्रा के बाद शहर पहुँची। वहाँ उसे वकील श्यामलाल का पता मिला। श्यामलाल एक सादगी पसंद इंसान थे, जो सचमुच गरीबों के हक के लिए लड़ते थे। सरला ने उन्हें सारी बात बताई। वकील ने ध्यान से सुना और बोले, “चौधरी जैसे लोग कागज़ों में हेराफेरी करके ज़मीन हड़पते हैं। मुझे कुछ पुराने दस्तावेज़ देखने होंगे। तुम अपने गाँव के पटवारी से मिलो और ज़मीन का रिकॉर्ड निकलवाओ।”

सरला लौट आई और रामू को सब बताया। दोनों गाँव के पटवारी, रामप्रसाद, के पास गए। रामप्रसाद पहले तो टालमटोल करने लगा, पर जब सरला ने गिड़गिड़ाकर कहा, “हमारी जिंदगी का सवाल है, भैया,” तो उसका दिल पिघल गया। उसने पुराने रजिस्टर खंगाले और एक चौंकाने वाली बात सामने आई—रामू की झोपड़ी वाली ज़मीन असल में गाँव की साझा ज़मीन थी, जिसे चौधरी ने अपने नाम करवा लिया था। यह गैरकानूनी था।

रामू और सरला फिर शहर गए। वकील श्यामलाल ने कागज़ देखे और मुस्कुराए। “बस, अब चौधरी की खैर नहीं।” उन्होंने कोर्ट में केस दायर किया। गाँव में हलचल मच गई। चौधरी को जब खबर मिली, तो वह आग-बबूला हो गया। उसने रामू को धमकाया, “तूने मेरे खिलाफ कोर्ट में जाना सिख लिया? अब देख, तुझे गाँव में नहीं रहने दूँगा।”

पर रामू अब डरने वाला नहीं था। कोर्ट की सुनवाई शुरू हुई। वकील श्यामलाल ने सारे सबूत पेश किए—पुराने रजिस्टर, गवाह और चौधरी के फर्जी कागज़। चौधरी ने अपने पैसे और रसूख का ज़ोर लगाया, पर सच के सामने उसकी एक न चली। जज ने फैसला सुनाया—झोपड़ी की ज़मीन रामू की रहेगी, और चौधरी को गाँव की दूसरी ज़मीनों पर भी दावा छोड़ना होगा।

गाँव में खुशी की लहर दौड़ गई। रामू और सरला की हिम्मत की चर्चा हर जुबान पर थी। चौधरी की हवेली में सन्नाटा पसर गया। उस दिन के बाद उसने किसी गरीब को परेशान करने की हिम्मत नहीं की।

झोपड़ी में फिर से चूल्हा जला। सरला ने छोटू को गोद में लिया और रामू से कहा, “देखा, मेहनत और सच कभी हारते नहीं।” रामू ने हँसकर कहा, “हाँ, और तुम्हारी हिम्मत ने तो चौधरी का किराया भी माफ करवा दिया।”

गंगा की लहरें अब भी किनारे से टकराती थीं, पर उनकी आवाज़ में अब एक नया संगीत था—न्याय का संगीत। रामू की झोपड़ी अब सिर्फ एक आशियाना नहीं थी, बल्कि हिम्मत और हक की मिसाल बन गई थी।

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