चाचा की शायरी (Chacha ki Shayri Family Kahani)

गाँव के बिल्कुल बीचों-बीच बने पुराने मकान में शर्मा परिवार का डेरा था। ये घर ऐसा था कि बाहर से देखो तो लगे जैसे कोई भूतिया हवेली, लेकिन अंदर से हँसी-मज़ाक और छोटी-मोटी मुसीबतों का मेला। इस घर में हर इंसान अपने आप में एक कहानी था। मम्मी-पापा, दादी, भाई-बहन, और सबसे खास—चाचा जी, जिनका नाम था रामलाल, लेकिन सब उन्हें “शायर चाचा” कहकर चिढ़ाते थे। क्यों? क्योंकि चाचा जी को शायरी का ऐसा जुनून था कि वो हर बात को गज़ल बना देते थे, चाहे वो खाना जलने की बात हो या बकरी के भागने की। लेकिन उनकी शायरी में एक खासियत थी—वो इतनी अजीब होती थी कि सुनने वाला हँसते-हँसते लोटपोट हो जाए।
एक बार की बात है, गर्मियों की छुट्टियाँ थीं। पूरा परिवार घर में जमा था। मम्मी रसोई में पसीना बहाते हुए आलू-गोभी की सब्जी बना रही थीं, पापा अखबार पढ़ते-पढ़ते झपकी ले रहे थे, दादी अपनी पुरानी चश्मा ठीक करने में लगी थीं, और भाई-बहन—यानी मैं (राहुल) और मेरी छोटी बहन रिया—टीवी पर कार्टून देखने की जंग लड़ रहे थे। तभी दरवाजे पर घंटी बजी। “कौन है?” मम्मी ने चिल्लाकर पूछा। जवाब में एक भारी आवाज़ गूँजी, “अरे, अपने चाचा को भूल गए क्या? खोलो दरवाज़ा, शायरी का खज़ाना लाया हूँ!”
बस, चाचा जी का आना था और घर में हलचल मच गई। चाचा जी बैग लटकाए, मूंछों पर ताव देते हुए अंदर आए। उनके साथ उनका पुराना रेडियो भी था, जो वो हर बार लाते थे, लेकिन उसमें से सिर्फ़ खरखराहट की आवाज़ आती थी। “कहाँ है मेरा परिवार? सुनो, आज मैंने नई गज़ल लिखी है!” चाचा ने घोषणा की। मैंने और रिया ने एक-दूसरे को देखा और मुँह दबाकर हँसने लगे। दादी ने चश्मा उतारते हुए कहा, “रामलाल, पहले चाय तो पी ले, फिर शायरी सुनाना।” लेकिन चाचा कहाँ मानने वाले थे? वो तो पहले ही मूड में आ चुके थे।
चाचा ने गला खखारा, रेडियो को टेबल पर रखा, और शुरू हो गए:
“सुनो मेरे प्यारे, ये दिल का इशारा,
सब्जी में नमक है, मगर प्यार का स्वाद गायब सारा।”
मम्मी, जो रसोई से बाहर आ रही थीं, ये सुनकर ठिठक गईं। “रामलाल, ये क्या बकवास है? मेरी सब्जी में स्वाद की कमी? अभी चखकर बता!” चाचा ने हँसते हुए कहा, “अरे भाभी, ये तो बस शायरी का मज़ा है, आप तो गुस्सा हो गईं!” पापा, जो अब तक जाग चुके थे, बोले, “रामलाल, तुम्हारी शायरी तो अखबार की हेडलाइन से भी अजीब है।” और फिर सब हँस पड़े।
लेकिन चाचा जी का जोश ठंडा होने का नाम ही नहीं ले रहा था। वो बोले, “अच्छा, एक और सुनो। ये खास गाँव के बिजली वाले पर है।” और फिर शुरू:
“बिजली आती है, बिजली जाती है,
दिल की धड़कन को ठंडक ना पाती है।
पंखा रुका, पसीना टपके,
फिर भी बिल में सितारे चमके।”
ये सुनकर मैं और रिया तो हँस-हँसकर कुर्सी से गिरते-गिरते बचे। दादी ने भी अपनी चश्मा ठीक करना छोड़ दिया और बोलीं, “रामलाल, तू तो गालिब का भूत ले आया है!” मम्मी ने चाय का कप थमाते हुए कहा, “रामलाल, ये शायरी छोड़कर कोई काम-धाम क्यों नहीं करता?” चाचा ने मूंछों पर हाथ फेरते हुए जवाब दिया, “भाभी, शायरी ही मेरा काम है, दिलों को जीतने का जाम है।”
अब तक घर में माहौल पूरी तरह मस्ती में डूब चुका था। लेकिन असली मुसीबत तब शुरू हुई, जब चाचा ने ऐलान किया कि वो गाँव के मेला में होने वाली “शायरी प्रतियोगिता” में हिस्सा लेने जा रहे हैं। गाँव का मेला हर साल लगता था, और उसमें तरह-तरह की प्रतियोगिताएँ होती थीं—नाच, गाना, कुश्ती, और हाँ, शायरी भी। चाचा ने ठान लिया था कि वो इस बार ट्रॉफी जीतकर ही लौटेंगे।
“चाचा, आपकी शायरी तो ठीक है, लेकिन मेला में बड़े-बड़े शायर आते हैं। आप कैसे जीतेंगे?” मैंने मज़ाक में पूछा। चाचा ने आँख मारते हुए कहा, “राहुल बेटा, शायरी दिल से निकलती है, और मेरा दिल तो शेर है!” रिया ने चहकते हुए कहा, “हाँ, शेर तो है, पर जंगल का नहीं, सर्कस का!” और फिर सबके ठहाके गूँज उठे।
मेले का दिन आया। पूरा परिवार चाचा का हौसला बढ़ाने के लिए मेले में पहुँच गया। मम्मी ने चाचा को नया कुर्ता पहनाया, पापा ने कहा, “रामलाल, ज्यादा मत उड़ना, जमीन पर रहना।” दादी ने आशीर्वाद देते हुए कहा, “जा बेटा, गालिब को हरा के आ!” चाचा ने अपना रेडियो कंधे पर लटकाया और स्टेज की ओर बढ़ गए।
मेले में भीड़ उमड़ रही थी। स्टेज पर एक से बढ़कर एक शायर अपनी शायरी सुना रहे थे। कोई प्यार की बात कर रहा था, कोई समाज की, तो कोई राजनीति पर तंज कस रहा था। चाचा की बारी आई। वो मूंछों पर ताव देते हुए माइक के सामने खड़े हुए। भीड़ में हम सब साँस रोके देख रहे थे। चाचा ने गला खखारा और शुरू किया:
“सुनो मेरे यारो, ये गाँव हमारा,
ट्रैक्टर की खटपट, और बकरी का शोर सारा।
बिजली चली जाए, तो टॉर्च जलाओ,
पर प्यार की बत्ती को कभी ना बुझाओ।”
पहले तो भीड़ में सन्नाटा छा गया। फिर एक-दो लोग हँसे, और देखते ही देखते पूरा पंडाल ठहाकों से गूँज उठा। चाचा की शायरी में वो जादू था कि लोग गंभीर होने की कोशिश करते, लेकिन हँसी रोक नहीं पाते। चाचा ने दूसरी शायरी शुरू की:
“मोबाइल की रिंगटोन, दिल को भटकाए,
व्हाट्सएप का स्टेटस, रातों को जगाए।
डेटा खत्म हो जाए, तो दिल बेकरार,
फिर भी सच्चा प्यार है, गाँव का संसार।”
अब तो भीड़ तालियाँ बजाने लगी। जज भी हँसते-हँसते अपनी कुर्सियों से गिरने को थे। लेकिन असली ट्विस्ट तब आया, जब चाचा ने तीसरी शायरी शुरू की, और बीच में उनका रेडियो अचानक चालू हो गया। उसमें से पुराना गाना बजने लगा—“ये देश है वीर जवानों का!” चाचा घबरा गए, लेकिन हार नहीं मानी। उन्होंने तुरंत शायरी में मोड़ दिया:
“रेडियो मेरा यार, गाता है गाना,
शायरी का मज़ा, अब होगा पुराना!”
ये सुनकर भीड़ और ज़ोर से हँसी। जजों ने तुरंत चाचा को “सबसे मज़ेदार शायर” का खिताब दे दिया। ट्रॉफी तो नहीं मिली, लेकिन चाचा की शायरी पूरे गाँव में मशहूर हो गई।
घर लौटते वक्त चाचा खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। मम्मी ने कहा, “रामलाल, तुम्हारी शायरी ने तो कमाल कर दिया।” पापा ने चुटकी लेते हुए कहा, “हाँ, कमाल भी किया और बवाल भी!” दादी ने चाचा को गले लगाते हुए कहा, “बेटा, तूने हमारा नाम रोशन कर दिया।” और मैंने और रिया ने मिलकर चाचा को छेड़ा, “चाचा, अब तो आपकी शायरी यूट्यूब पर डालनी पड़ेगी!”
उस रात घर में खूब हँसी-मज़ाक हुआ। चाचा ने फिर से शायरी शुरू की, लेकिन इस बार मम्मी ने चप्पल उठा ली और कहा, “रामलाल, अब बस! रात को सब्जी की शायरी नहीं चलेगी!” और फिर से ठहाके गूँज उठे।
चाचा की शायरी ने न सिर्फ़ मेले में धूम मचाई, बल्कि हमारे परिवार को एक ऐसी याद दी, जो हमेशा हमें हँसाएगी। और हाँ, चाचा का रेडियो अब भी वही खरखराहट करता है, लेकिन चाचा कहते हैं, “ये खरखराहट मेरी शायरी की बीट है!”