बुआ की कुर्सी और टांग का दर्द (Majedar Family Kahani)

शर्मा परिवार में हंसी-मजाक और छोटी-मोटी मुसीबतें तो जैसे रोज का मेहमान थीं। दिल्ली के एक मध्यमवर्गीय मोहल्ले में उनका छोटा-सा दो मंजिला घर था, जहाँ हर कोने में कोई न कोई कहानी छुपी रहती थी। इस बार कहानी की शुरुआत हुई थी बुआ जी से, जिनका असली नाम तो शकुंतला शर्मा था, लेकिन घर में सब उन्हें “बुआ जी” ही कहते थे। बुआ जी थीं परिवार की सबसे रंगीन शख्सियत—हमेशा हंसमुख, थोड़ा ड्रामेबाज, और हर बात में अपनी पुरानी कहानियों को घुसेड़ देने वाली। लेकिन इस बार उनकी एक नई मुसीबत ने पूरे घर को हंसी के ठहाकों और थोड़े से हंगामे में डुबो दिया।
बात उस दिन की है जब बुआ जी अपने गाँव से दिल्ली आई थीं। उनके साथ था उनका पसंदीदा सामान—एक पुरानी, लकड़ी की कुर्सी, जिसे वो “अपनी जान” कहती थीं। वो कुर्सी कोई साधारण कुर्सी नहीं थी। उसका रंग भूरा था, जिस पर जगह-जगह पॉलिश उखड़ चुकी थी, और उसकी एक टांग थोड़ी ढीली थी, जिससे बैठते ही “खट-खट” की आवाज़ आती थी। बुआ जी का दावा था कि ये कुर्सी उनके दादाजी के ज़माने की थी और इसमें “खानदानी जादू” था। घरवाले इस बात पर हंसते, लेकिन बुआ जी को ये मज़ाक बिल्कुल पसंद नहीं था।
“अरे, तुम लोग क्या जानो! ये कुर्सी मेरी टांगों का दर्द ठीक करती है,” बुआ जी ने पहले ही दिन ऐलान किया, जब वो अपनी कुर्सी को ड्राइंग रूम के बीचों-बीच रखकर उस पर धम्म से बैठ गईं। उनकी टांगों में पिछले कुछ सालों से दर्द रहता था, और वो हर बार कोई न कोई नया इलाज आजमाती थीं। इस बार उनका भरोसा था इस कुर्सी पर।
घर में मम्मी (सुनीता), पापा (रमेश), और दो बच्चे—17 साल का राहुल और 14 साल की रिया—सबने एक-दूसरे को देखकर आँखें मटकाईं। राहुल ने धीरे से रिया के कान में कहा, “लगता है बुआ जी की कुर्सी से अब हमें भी दर्द होने वाला है।” रिया ने हंसते हुए मुँह दबा लिया। लेकिन मम्मी ने दोनों को आँखें तरेरकर चुप करा दिया।
पहले दिन तो सब ठीक रहा। बुआ जी अपनी कुर्सी पर बैठकर पुरानी कहानियाँ सुनाती रहीं—कैसे उनके गाँव में एक बार भूत ने कुर्सी पर बैठकर गाना गाया था, और कैसे वो कुर्सी उनके लिए लकी थी। लेकिन दूसरे दिन से हंगामा शुरू हुआ। बुआ जी ने ऐलान किया कि उनकी कुर्सी को कोई और नहीं छुएगा। “ये मेरी दवा है, समझे? कोई और बैठा तो टांग का दर्द उसको भी हो जाएगा!”
अब ये बात राहुल को चैलेंज जैसी लगी। वो वैसे भी बुआ जी की बातों को “बकवास” समझता था। उस रात, जब सब सो गए, राहुल चुपके से ड्राइंग रूम में गया और बुआ जी की कुर्सी पर बैठ गया। उसने सोचा, “देखते हैं, कितना दर्द होता है!” लेकिन जैसे ही वो बैठा, कुर्सी की ढीली टांग ने “खटाक” की आवाज़ की और वो धड़ाम से नीचे गिर पड़ा। शोर सुनकर बुआ जी दौड़ती हुई आईं।
“हाय राम! मेरी कुर्सी! तूने मेरी जान को हाथ लगाया?” बुआ जी चिल्लाईं। राहुल हड़बड़ा गया और बोला, “बुआ जी, मैं तो बस… टेस्ट कर रहा था।”
“टेस्ट कर रहा था? अब तुझे टांग का दर्द होगा, देख लेना!” बुआ जी ने गुस्से में कहा और अपनी कुर्सी को सहलाने लगीं।
अगले दिन सुबह राहुल को सचमुच टांग में हल्का-सा दर्द महसूस हुआ। अब ये दर्द कुर्सी की वजह से था या रात को गिरने की वजह से, ये तो भगवान जाने, लेकिन राहुल ने पूरे घर में हल्ला मचा दिया, “बुआ जी, आपकी कुर्सी में सचमुच जादू है! मेरी टांग दुख रही है!”
रिया को ये सुनकर हंसी छूट गई। वो बोली, “अरे, तू तो गिरा था, उसकी वजह से होगा।” लेकिन बुआ जी का सीना गर्व से चौड़ा हो गया। “देखा? मैंने कहा था न, मेरी कुर्सी खास है!”
अब ये बात पूरे घर में फैल गई। मम्मी को लगा कि शायद कुर्सी में सचमुच कुछ बात है। उन्होंने बुआ जी से कहा, “बुआ जी, अगर ये कुर्सी टांग का दर्द ठीक करती है, तो मुझे भी बैठने दो। मेरी कमर भी तो दुखती रहती है।” बुआ जी ने पहले तो मना किया, लेकिन मम्मी के ज़िद करने पर हार मान ली।
मम्मी बैठीं तो कुर्सी ने फिर “खट-खट” की आवाज़ की। मम्मी डर गईं और बोलीं, “बुआ जी, ये तो टूटने वाली है!” बुआ जी ने झट से कहा, “अरे, ये आवाज़ तो इसका जादू है। तुम बैठो, तुम्हारी कमर ठीक हो जाएगी।” मम्मी ने आधा घंटा बैठकर देखा, लेकिन कमर का दर्द तो दूर, उन्हें लगा कि उनकी टांग भी दुखने लगी।
अब पापा, जो वैसे तो बुआ जी की बातों को “नौटंकी” कहते थे, भी उत्सुक हो गए। उन्होंने सोचा, “चलो, मैं भी आजमाता हूँ।” पापा बैठे, और इस बार कुर्सी ने न सिर्फ़ “खट-खट” की, बल्कि उसकी ढीली टांग पूरी तरह टूट गई। पापा गिरते-गिरते बचे, लेकिन कुर्सी का एक टुकड़ा हाथ में आ गया।
बुआ जी ने ये देखा तो ऐसा चीखीं कि पड़ोसी तक जाग गए। “हाय मेरी कुर्सी! तुमने मेरी जान ले ली, रमेश!” वो रोने-सी लगीं। पापा हड़बड़ाते हुए बोले, “बुआ जी, मैं तो बस… अरे, ये तो पहले से टूटी थी!”
लेकिन बुआ जी कहाँ मानने वाली थीं। उन्होंने ऐलान किया, “अब मेरी टांग का दर्द कभी ठीक नहीं होगा। ये कुर्सी मेरी दवा थी!”
राहुल और रिया को ये सब देखकर हंसी छूट रही थी, लेकिन मम्मी ने उन्हें डांटकर चुप कराया। फिर मम्मी ने पापा को कहा, “अब कुर्सी ठीक करवाओ, नहीं तो बुआ जी पूरे मोहल्ले में ढोल बजा देंगी।”
पापा ने अगले दिन बढ़ई को बुलाया। बढ़ई ने कुर्सी देखी और बोला, “ये तो सौ साल पुरानी है। टांग तो ठीक हो जाएगी, लेकिन ये अब ज़्यादा वज़न नहीं झेल पाएगी।” बुआ जी ने ये सुना तो फिर ड्रामा शुरू कर दिया, “हाय, मेरी कुर्सी अब बेकार हो गई!”
लेकिन राहुल को एक आइडिया आया। उसने रिया के साथ मिलकर कुर्सी को चुपके से रंग दिया और उसकी टांग को मज़बूत करवाया। फिर उन्होंने कुर्सी को बुआ जी के सामने पेश किया और कहा, “बुआ जी, आपकी कुर्सी अब पहले से भी ज़्यादा जादुई हो गई है!”
बुआ जी ने कुर्सी देखी, उस पर बैठीं, और हैरानी से बोलीं, “अरे, ये तो सचमुच पहले से बेहतर लग रही है। मेरा दर्द भी कम हो रहा है!” अब ये दर्द सचमुच कम हुआ था या बुआ जी का मन बहल गया, ये कोई नहीं जानता। लेकिन पूरे घर में हंसी छा गई।
आखिर में बुआ जी ने अपनी कुर्सी को फिर से “जान” घोषित किया और घरवालों को हिदायत दी कि अब कोई उसे हाथ भी नहीं लगाएगा। राहुल और रिया ने एक-दूसरे को देखकर आँख मारी, और पापा ने चुपके से मम्मी से कहा, “अगली बार बुआ जी को कुर्सी समेत गाँव में ही छोड़ आऊँगा।”
इस तरह, बुआ जी की कुर्सी और टांग का दर्द पूरे परिवार के लिए एक हफ्ते का हंसी का खजाना बन गया। और हाँ, कुर्सी आज भी ड्राइंग रूम में खड़ी है, लेकिन अब उस पर सिर्फ़ बुआ जी ही बैठती हैं—या शायद कुर्सी भी डरती है कि कहीं फिर से कोई उसका इम्तिहान न ले ले!