कफन की कीमत (Kafan ki keemat kahani)

गाँव के किनारे एक छोटी-सी झोपड़ी में मंगलू और उसकी पत्नी राधा रहते थे। मंगलू मज़दूरी करता था, और राधा घर संभालती थी। दोनों की ज़िंदगी गरीबी की चक्की में पिस रही थी, पर फिर भी उनके बीच प्यार और समझदारी की कमी नहीं थी। उनके पास दो बेटे थे—छोटू और बबलू। छोटू छह साल का था और बबलू चार का। दोनों बच्चे दिनभर धूल-मिट्टी में खेलते, और मंगलू-राधा की दुनिया इन्हीं बच्चों के इर्द-गिर्द घूमती थी।
एक दिन की बात है, सर्दी का मौसम था। ठंडी हवाएँ गाँव में सन्नाटा बिखेर रही थीं। राधा को कई दिनों से बुखार था, पर वह चुपचाप काम करती रही। मंगलू ने कहा, “राधा, तू आराम कर ले, मैं हकीम को बुला लाता हूँ।” राधा हँसकर टाल गई, “अरे, कुछ नहीं है, दो दिन में ठीक हो जाऊँगी। पैसे कहाँ से लाएगा हकीम के लिए?” मंगलू चुप हो गया, पर मन में एक बैचेनी सी घर कर गई।
दो दिन बाद राधा की हालत बिगड़ गई। वह बिस्तर से उठ भी नहीं पा रही थी। मंगलू घबराया और गाँव के हकीम को बुला लाया। हकीम ने देखकर कहा, “मंगलू, इसे जल्दी शहर ले जाओ, गाँव में इसका इलाज नहीं हो सकता।” मंगलू के पास शहर जाने के लिए पैसे नहीं थे। उसने सोचा कि साहूकार से उधार ले लेगा। वह साहूकार रामलाल के पास गया। रामलाल ने मंगलू को ऊपर से नीचे तक देखा और बोला, “पैसे तो दूँगा, पर ब्याज़ चुकाना पड़ेगा। और हाँ, कुछ गिरवी रखना होगा।” मंगलू के पास कुछ था ही नहीं, सिवाय अपनी छोटी-सी ज़मीन के टुकड़े के। उसने वह कागज़ रामलाल को दे दिया और पचास रुपये लेकर राधा को शहर ले गया।
शहर के अस्पताल में डाक्टर ने बताया कि राधा को निमोनिया हो गया है और हालत नाज़ुक है। मंगलू दिन-रात अस्पताल में बैठा रहा। छोटू और बबलू को उसने पड़ोस की चachi के पास छोड़ दिया था। तीन दिन बाद राधा की साँसें थम गईं। मंगलू का संसार जैसे उजड़ गया। वह रोता हुआ गाँव लौटा, राधा का शरीर साथ लाया। गाँव वालों ने देखा तो सबकी आँखें नम हो गईं। छोटू और बबलू माँ को देखकर चीखने लगे, पर मंगलू खामोश था—उसके आँसू भी जैसे सूख गए थे।
अब सवाल कफन का था। मंगलू के पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी। उसने सोचा कि गाँव वालों से मदद माँग लेगा। वह चौपाल पर गया और बोला, “भाइयो, मेरी राधा चली गई। मेरे पास कफन के लिए भी पैसे नहीं हैं। कुछ मदद कर दो।” गाँव के कुछ लोग आगे आए। किसी ने दो रुपये दिए, किसी ने एक रुपये। पर कुल जमा आठ रुपये ही इकट्ठा हुआ। कफन के लिए कम-से-कम बीस रुपये चाहिए थे। मंगलू निराश होकर घर लौट आया।
रात हो गई थी। ठंडी हवा झोपड़ी के छेदों से भीतर घुस रही थी। मंगलू राधा के शव के पास बैठा था। छोटू और बबलू पास ही सो रहे थे। तभी उसे याद आया कि साहूकार रामलाल से फिर उधार लिया जा सकता है। वह रात को ही रामलाल के घर पहुँचा। रामलाल ने दरवाज़ा खोला और गुस्से से बोला, “अब क्या चाहिए, मंगलू? रात को भी चैन नहीं है?” मंगलू ने हाथ जोड़े, “मालिक, मेरी राधा मर गई। कफन के लिए बीस रुपये चाहिए।” रामलाल ने ठंडी नज़र से उसे देखा और बोला, “पैसे दूँगा, पर अब तेरे पास गिरवी रखने को कुछ नहीं है। ब्याज़ दुगना होगा।” मंगलू ने सोचा, “जो होगा, देखा जाएगा। अभी तो राधा को विदा करना है।” उसने हामी भर दी।
रामलाल ने बीस रुपये दिए और एक कागज़ पर अँगूठा लगवाया। मंगलू ने पैसे लिए और सुबह बाज़ार से कफन खरीद लाया। गाँव वालों ने मिलकर राधा का अंतिम संस्कार किया। मंगलू चिता के पास खड़ा था, छोटू और बबलू उसके पैरों से लिपटे हुए थे। आग की लपटें उठीं, और राधा की यादें मंगलू के मन में जलने लगीं।
दिन बीतते गए। मंगलू मज़दूरी करता, बच्चों को पालता, पर साहूकार का ब्याज़ बढ़ता जा रहा था। जो पचास रुपये उसने राधा के इलाज के लिए लिए थे, वह ब्याज़ समेत दो सौ रुपये हो गए। और कफन के बीस रुपये अब साठ रुपये बन चुके थे। मंगलू दिन-रात मेहनत करता, पर साहूकार का कर्ज़ कम होने का नाम नहीं लेता था। रामलाल कभी-कभी आता और धमकाता, “मंगलू, कर्ज़ नहीं चुकाया तो तेरे बच्चों को बेच दूँगा।” मंगलू डर जाता, पर कुछ कह नहीं पाता।
एक दिन गाँव में पंचायत बैठी। मंगलू ने हिम्मत करके अपनी बात रखी, “पंचों, साहूकार मुझे मार डालेगा। मेरी ज़मीन ले ली, अब मेरे बच्चों को भी छीनना चाहता है। मेरी मदद करो।” पंचों ने रामलाल को बुलाया। रामलाल ने कागज़ दिखाए और बोला, “सब क़ानूनी है। इसने अपनी मर्ज़ी से अँगूठा लगाया।” पंचों ने मंगलू से पूछा, “क्या कहता है?” मंगलू बोला, “मैंने राधा को बचाने के लिए लिया था। कफन के लिए लिया था। क्या गरीब का दर्द कोई नहीं समझता?” पंच चुप रहे। आखिर में फैसला हुआ कि मंगलू को दो साल का वक़्त दिया जाए, कर्ज़ चुकाने के लिए।
दो साल तक मंगलू ने हड्डियाँ तोड़ दीं। खेतों में मज़दूरी की, जंगल से लकड़ी काटी, यहाँ-वहाँ काम ढूँढा। छोटू और बबलू भी बड़े हो रहे थे। वे स्कूल नहीं जा सके, पर मंगलू को हाथ बँटाने लगे। आखिरकार एक दिन मंगलू ने सारा कर्ज़ चुकता कर दिया। रामलाल को पैसे देकर उसने अपनी ज़मीन के कागज़ वापस लिए। उस दिन मंगलू की आँखों में आँसू थे, पर चेहरे पर सुकून भी था।
शाम को वह राधा की समाधि के पास गया। छोटू और बबलू साथ थे। उसने कहा, “राधा, तेरे कफन की कीमत मैंने चुका दी। अब तेरे बच्चे मेरे साथ हैं, और हमारा सर ऊँचा है।” हवा में एक ठंडी साँस चली, जैसे राधा ने जवाब दिया हो। मंगलू ने बच्चों का हाथ थामा और झोपड़ी की ओर चल पड़ा।
ज़िंदगी फिर से शुरू हुई। गरीबी अभी भी थी, पर मंगलू के मन में अब डर नहीं था। उसने सीख लिया था कि कफन की कीमत सिर्फ रुपये-पैसे नहीं, बल्कि इंसानियत और हिम्मत भी है। गाँव वाले भी मंगलू की कहानी को याद करते, और कहते, “देखो, मंगलू ने साहूकार को हरा दिया।” यह कहानी गाँव की चौपालों में गूँजती रही, एक सबक बनकर, एक हौसले की मिसाल बनकर।