बेटे की कमाई (Bete ki kamai kahani)

गाँव के किनारे एक टूटी-फूटी झोपड़ी में रामदीन और उसकी पत्नी सरजू रहते थे। दोनों की उम्र साठ के पार हो चुकी थी। कमर झुक गई थी, आँखों की रोशनी मद्धम पड़ गई थी, और हाथों में वह ताकत न रही थी जो कभी खेतों में हल चलाते वक्त हुआ करती थी। गाँव में सब जानते थे कि रामदीन कभी मेहनती किसान था, पर सूखे और साहूकार के कर्ज ने उसकी ज़मीन छीन ली। अब दोनों बूढ़े पति-पत्नी दूसरों के खेतों में मज़दूरी कर गुज़ारा करते थे। उनकी एकमात्र संतान, उनका बेटा छोटू, शहर में रहता था। छोटू को पढ़ाने के लिए रामदीन ने अपनी बची-खुची ज़मीन तक बेच दी थी, यह सोचकर कि बेटा एक दिन बड़ा आदमी बनेगा और उनकी लाचारी को सँवारेगा।
छोटू पढ़ाई में तेज़ था। गाँव के स्कूल में मास्टर जी ने कहा था, “यह लड़का कुछ बड़ा करेगा।” उसी भरोसे में रामदीन और सरजू ने अपनी भूख मिटाई और उसे शहर भेजा। छोटू ने वादा किया था, “बाबूजी, मैं मेहनत करूँगा। आपकी सारी तकलीफें दूर कर दूँगा।” उसकी बातों में इतना यकीन था कि दोनों बूढ़ों ने अपनी ज़िंदगी की सारी उम्मीदें उसी पर टिका दीं। लेकिन साल बीतते गए, और छोटू का कोई अता-पता न रहा। कभी-कभी एक-आध चिट्ठी आती, जिसमें वह लिखता, “मैं ठीक हूँ। जल्दी कुछ करूँगा।” पर उस “जल्दी” का इंतज़ार करते-करते कई बरस गुज़र गए।
एक दिन सरजू खेत से लौटी, तो उसकी साँसें फूल रही थीं। उसने रामदीन से कहा, “मुझे लगता है, अब मैं ज़्यादा दिन न चलूँगी। छोटू को एक बार देख लूँ, तो आँखें मूँद लूँ।” रामदीन चुप रहा। उसका मन भीतर-भीतर घुट रहा था, पर वह सरजू को ढाढस बँधाता, “वह आएगा। उसने वादा जो किया है।” लेकिन सच तो यह था कि उसे भी अब यकीन कम होने लगा था। गाँव वाले ताने मारते, “रामदीन, तेरा बेटा तो शहर में मज़े कर रहा है। तुझे भूल गया।” रामदीन कुछ न कहता, बस सिर झुकाकर अपनी झोपड़ी की ओर चला जाता।
फिर एक दिन गाँव में हलचल मच गई। छोटू आया था। गाड़ी से उतरा, सूट-बूट पहने, चश्मा लगाए, हाथ में चमचमाती थैली लिए। गाँव वालों ने उसे घेर लिया। कोई बोला, “अरे छोटू, बड़ा आदमी बन गया!” कोई हँसा, “अब तो तेरे बाप की झोपड़ी भी हवेली बनेगी।” छोटू ने सबको नमस्ते की और सीधा घर की ओर बढ़ा। रामदीन और सरजू दरवाज़े पर खड़े थे। सरजू की आँखों में आँसू थे, और रामदीन का चेहरा भावहीन। छोटू ने झुककर उनके पैर छुए और बोला, “बाबूजी, माँ, मैं आ गया। अब आपकी सारी तकलीफें खत्म।”
झोपड़ी में घुसते ही छोटू ने अपनी थैली खोली। उसमें से नोटों की गड्डियाँ निकालीं और माँ-बाप के सामने रख दीं। “यह देखो, मैंने बहुत कमाया है। अब आप दोनों को मज़दूरी नहीं करनी पड़ेगी।” सरजू ने नोटों को छुआ और रो पड़ी। रामदीन ने पूछा, “यह सब कैसे कमाया, बेटा?” छोटू हँसा, “बाबूजी, शहर में मेहनत की है। एक दुकान में काम किया, फिर थोड़ा-बहुत व्यापार शुरू किया। सब ठीक चल रहा है।” रामदीन ने सिर हिलाया, पर उसकी आँखों में कुछ संदेह था।
अगले दिन छोटू ने गाँव में ढोल बँटवाया। उसने ऐलान किया कि वह अपने माँ-बाप के लिए नया मकान बनवाएगा। गाँव वालों की भीड़ जमा हो गई। कोई बोला, “रामदीन, तू तो भाग्यशाली है। ऐसा बेटा सबको नहीं मिलता।” रामदीन मुस्कुराया, पर उसका मन अभी भी भारी था। उसे छोटू की बातों में कुछ अधूरापन लग रहा था। उसने सोचा, “इतने साल तक कोई खबर न ली, और अब अचानक इतना पैसा? कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं?”
दिन बीतते गए। छोटू ने मकान का काम शुरू करवा दिया। मिस्त्री आए, ईंटें-पत्थर ढोए गए। सरजू खुश थी। वह छोटू के लिए हर दिन कुछ न कुछ पकाती। लेकिन रामदीन चुपचाप सब देखता रहा। एक रात, जब छोटू बाहर चौपाल पर गाँव वालों से बात कर रहा था, रामदीन ने उसकी थैली खोली। उसमें कुछ कागज़ात मिले। एक चिट्ठी पर नज़र पड़ी, जिसमें लिखा था, “छोटू, अगली खेप जल्दी भेजना। मालिक नाराज़ हो रहा है।” रामदीन का दिल धक् से रह गया। उसने कागज़ात और पढ़े, तो पता चला कि छोटू किसी गलत धंधे में फँस गया था। वह शहर में चोरी का माल बेचने का काम करता था।
रामदीन का सिर चकरा गया। वह बाहर आया और छोटू को एक ओर ले गया। “यह सब क्या है, छोटू?” उसने कागज़ात उसके सामने रख दिए। छोटू का चेहरा पीला पड़ गया। वह हकला कर बोला, “बाबूजी, मैं… मैं मजबूरी में फँस गया था। शहर में मेहनत से कुछ न मिला, तो यह रास्ता अपनाना पड़ा।” रामदीन गुस्से से काँपने लगा। “तो तूने जो कमाया, वह चोरी का माल है? तूने हमें पढ़ाने के लिए जो मेहनत की, उसे इस तरह दागदार किया?”
छोटू सिर झुकाए खड़ा रहा। रामदीन ने कहा, “मैंने तुझे इसलिए नहीं पढ़ाया कि तू चोर बने। मैं मज़दूरी कर लूँगा, पर तेरी यह कमाई मुझे नहीं चाहिए।” सरजू भी पास आ गई थी। उसने सब सुन लिया था। वह रोते हुए बोली, “छोटू, तूने हमारे सपनों को क्यों तोड़ा?” छोटू कुछ न बोल सका। उसकी आँखों में शर्मिंदगी थी, पर वह चुप रहा।
अगले दिन रामदीन ने गाँव वालों को बुलाया। उसने छोटू की कमाई से आए सारे पैसे चौपाल पर रख दिए और बोला, “जो इसका हकदार हो, ले जाए। यह मेरे घर में नहीं रहेगा।” गाँव वाले हैरान थे। छोटू ने माँ-बाप से माफी माँगी और बोला, “मैं अब सुधर जाऊँगा।” पर रामदीन का जवाब सख्त था, “जब तक तू ईमान की कमाई न लाए, इस घर में कदम न रखना।”
छोटू चला गया। मकान का काम रुक गया। रामदीन और सरजू फिर से खेतों में मज़दूरी करने लगे। गाँव वाले ताने मारते, पर रामदीन को कोई फर्क न पड़ता। वह कहता, “चोरी की कमाई से बना मकान मेरे मरने के बाद भी मुझे चैन न देता।” सरजू चुपचाप उसकी बात मानती। दोनों बूढ़े अपनी मेहनत से रोटी कमाते और छोटू के सुधरने की प्रतीक्षा करते।
कई महीनों बाद एक चिट्ठी आई। छोटू ने लिखा, “बाबूजी, मैंने गलत धंधा छोड़ दिया है। अब एक दुकान में मज़दूरी कर रहा हूँ। थोड़ा-थोड़ा पैसा जोड़ रहा हूँ। जल्दी आऊँगा।” रामदीन ने चिट्ठी पढ़ी और सरजू को दिखाई। दोनों की आँखों में आँसू थे, पर इस बार वह खुशी के थे। उन्हें यकीन था कि उनका बेटा अब सही रास्ते पर है। और उस दिन का इंतज़ार फिर से शुरू हो गया, जब छोटू अपनी ईमान की कमाई लेकर घर लौटेगा।