ठंडी राख (Lohar ki Kahani)

thandi rakh kahani

गाँव के छोर पर, जहाँ बरगद का पेड़ अपनी विशाल शाखाओं से धूप को छलनी करता था, वहाँ एक छोटी-सी झोपड़ी थी। उस झोपड़ी में रहता था मंगलू—एक ऐसा इंसान, जिसके चेहरे पर हमेशा मुस्कान तैरती थी, मगर आँखों में सवालों का सैलाब। मंगलू की उम्र कोई पचास के आसपास थी, पर उसका शरीर अभी भी ताकतवर था। वह गाँव का लोहार था। उसकी भट्ठी की आग दिन-रात जलती रहती थी, और उसकी हथौड़ी की ठनक गाँव के कोने-कोने में गूँजती थी।

मंगलू की ज़िंदगी सादगी से भरी थी। सुबह भट्ठी जलती, दिनभर वह लोहे को पीटता, और रात को अपनी पत्नी सावित्री के साथ चूल्हे पर बनी रोटी खाकर सो जाता। सावित्री एक शांत स्वभाव की औरत थी, जिसके लिए मंगलू ही उसकी दुनिया था। दोनों की कोई संतान नहीं थी, और शायद यही कमी उनकी ज़िंदगी का एकमात्र दुख थी। फिर भी, मंगलू कभी इस बात को चेहरे पर नहीं लाता था। वह कहता, “सावित्री, हम दोनों एक-दूसरे के लिए ही पैदा हुए हैं। भगवान ने हमें जो दिया, वही बहुत है।”

लेकिन गाँव में हर कोई मंगलू की तरह संतुष्ट नहीं था। गाँव का जमींदार, ठाकुर रघुवीर सिंह, अपनी हवेली में बैठकर हर उस इंसान पर नज़र रखता था, जो उसकी आँखों में खटकता था। मंगलू भी उनमें से एक था। कारण साफ था—मंगलू की मेहनत और ईमानदारी। ठाकुर को यह बात पसंद नहीं थी कि गाँव का एक साधारण लोहार इतना सम्मान पाए। मंगलू की भट्ठी पर हर कोई जाता—किसान अपने हल ठीक करवाने, मज़दूर अपने औज़ार, और बच्चे उसकी कहानियाँ सुनने। ठाकुर को लगता था कि मंगलू का प्रभाव गाँव में उससे कहीं ज़्यादा था।

एक दिन ठाकुर ने अपने मुंशी को बुलाया और कहा, “मंगलू की भट्ठी की आग को ठंडा करना होगा। उसकी हिम्मत को राख करना होगा।” मुंशी ने सिर झुकाया और चला गया। उस रात, जब मंगलू और सावित्री सो रहे थे, उनकी भट्ठी में आग लग गई। सुबह तक वह भट्ठी, जो मंगलू की ज़िंदगी थी, राख का ढेर बन चुकी थी। गाँव वाले इकट्ठा हुए, मंगलू को सांत्वना दी, लेकिन मंगलू चुप था। उसकी आँखों में आग की लपटें नहीं, बल्कि एक ठंडी राख की उदासी थी।

सावित्री ने उसे हौसला दिया, “मंगलू, यह आग हमें नहीं जला सकती। हम फिर से भट्ठी बनाएँगे।” मंगलू ने उसका हाथ थाम लिया और बोला, “सावित्री, यह आग किसी ने लगाई है। मैं चुप नहीं रहूँगा।” सावित्री ने डरते हुए कहा, “ठाकुर के खिलाफ मत जाओ। वह हमें बर्बाद कर देगा।” मंगलू ने सिर्फ इतना कहा, “जो डरता है, वही बर्बाद होता है।”

अगले दिन मंगलू गाँव की चौपाल पर गया। वहाँ उसने सबके सामने कहा, “मेरी भट्ठी कोई हादसा नहीं, साज़िश थी। और यह साज़िश ठाकुर रघुवीर सिंह की है।” गाँव में सन्नाटा छा गया। ठाकुर का नाम लेना गाँव में किसी पाप से कम नहीं था। कुछ लोग डर गए, कुछ ने मंगलू का साथ देने की सोची। मंगलू ने कहा, “मैं ठाकुर से मिलने जा रहा हूँ। जो मेरे साथ है, वह आए।” गाँव के कुछ नौजवानों ने हिम्मत दिखाई और मंगलू के साथ चल पड़े।

ठाकुर की हवेली के दरवाजे पर मंगलू ने दस्तक दी। ठाकुर बाहर आया, उसकी आँखों में गुस्सा और होंठों पर व्यंग्य था। “क्या बात है, मंगलू? भट्ठी जल गई तो मेरे दरवाजे पर क्यों आया?” मंगलू ने शांत स्वर में कहा, “ठाकुर साहब, मैं सच जानता हूँ। आपने मेरी भट्ठी जलाई। मैं सिर्फ इतना पूछने आया हूँ—क्या गलती थी मेरी?” ठाकुर हँसा, “गलती? तुम जैसे लोग मेरे गाँव में बहुत बोलने लगे हो। यह गलती कम है क्या?”

मंगलू ने जवाब दिया, “ठाकुर साहब, आपकी हवेली की चमक मेहनत की राख पर टिकी है। लेकिन याद रखिए, राख ठंडी हो सकती है, मगर उसमें चिंगारी छिपी रहती है।” ठाकुर ने गुस्से में अपने नौकरों को बुलाया और मंगलू को पकड़ने का हुक्म दिया। लेकिन तभी गाँव के लोग, जो चुपके से मंगलू के पीछे आ गए थे, सामने आ खड़े हुए। किसान, मज़दूर, और यहाँ तक कि ठाकुर के कुछ पुराने नौकर भी। सभी की आँखों में एक ही सवाल था—क्यों?

ठाकुर के लिए यह पहली बार था जब उसने इतने लोगों को एक साथ अपने खिलाफ देखा। उसने मंगलू को छोड़ने का इशारा किया और बोला, “ठीक है, मंगलू। मैं तुम्हें नई भट्ठी बनवाने के लिए पैसे दूँगा। लेकिन मेरे खिलाफ एक शब्द और बोला, तो गाँव छोड़ना पड़ेगा।” मंगलू ने कहा, “मुझे आपके पैसे नहीं चाहिए, ठाकुर साहब। मुझे मेरी मेहनत का हक चाहिए।”

उस दिन से गाँव में कुछ बदल गया। मंगलू ने अपनी भट्ठी फिर से बनाई। गाँव वालों ने उसकी मदद की—कोई लकड़ी लाया, कोई मिट्टी, कोई लोहा। सावित्री ने भी दिन-रात मेहनत की। भट्ठी की आग फिर जली, और मंगलू की हथौड़ी की ठनक फिर गूँजी। लेकिन इस बार वह ठनक सिर्फ लोहे को नहीं, बल्कि गाँव के डर को भी तोड़ रही थी।

ठाकुर अब भी अपनी हवेली में बैठता था, लेकिन उसकी आवाज़ में वह दमखम नहीं रहा। गाँव वाले अब उससे डरते कम, और मंगलू की इज़्ज़त करते ज़्यादा थे। मंगलू ने कभी बदला नहीं लिया, क्योंकि वह जानता था कि बदले की आग जलाती है, मगर मेहनत की आग बनाती है।

एक रात, जब मंगलू और सावित्री अपनी झोपड़ी में बैठे थे, सावित्री ने पूछा, “मंगलू, तुमने ठाकुर को माफ़ कर दिया?” मंगलू ने मुस्कुराते हुए कहा, “सावित्री, मैंने उसे माफ़ नहीं किया। मैंने उसे भुला दिया। ठंडी राख में कुछ जलता नहीं, बस याद रहता है कि आग कभी थी।

गांव की कहानियां (Village Stories in Hindi)

मजेदार कहानियां (Majedar Kahaniyan)

अकबर बीरबल कहानियां (Akbar Birbal Kahaniyan)