साहूकार की साज़िश (Sahukar ki Sajis Kahani)

साहूकार की साज़िश – एक गरीब किसान की कहानी जो गाँव की ज़िंदगी को दर्शाती है। हरिया के संघर्ष, साहूकार के लालच और गाँव की एकजुटता की यह village story in hindi आपको भावुक कर देगी।”Keywords: garib kisaan ki kahani, gaaon ki kahani, village story in hindi
साहूकार की साज़िश (Sahukar ki Sajis Kahani)
गंगा के किनारे बसा गाँव सुखपुर अपनी सादगी और मेहनतकश लोगों के लिए जाना जाता था। हरे-भरे खेत, छोटी-छोटी झोपड़ियाँ और गाँव के बीच में एक पुराना बरगद का पेड़—यहाँ का जीवन प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर चलता था। लेकिन इस शांत गाँव में एक ऐसा शख्स भी रहता था, जिसकी नज़रें हर किसी की मेहनत पर टिकी रहती थीं—साहूकार रामलाल।
रामलाल गाँव का सबसे धनी और प्रभावशाली व्यक्ति था। उसकी हवेली गाँव के बाहर ऊँचे टीले पर थी, जहाँ से वह पूरे सुखपुर को अपनी जागीर की तरह देखता था। उसकी मोटी मूँछें, चमकदार कुर्ता और हाथ में हमेशा रहने वाली मोटी लाठी उसे एक अलग ही रौब देती थी। लेकिन उसका असली हथियार उसकी चालाकी और लालच था। वह गरीब किसानों को कर्ज़ देता, और फिर सूद के जाल में ऐसा फँसाता कि उनकी ज़मीन और मेहनत सब उसकी हो जाती।
गाँव में एक मेहनती किसान था—हरिया। हरिया की उम्र चालीस के आसपास थी। उसकी पत्नी लक्ष्मी और दो बच्चे—मंगल और नन्ही—उसके जीवन का आधार थे। हरिया के पास चार बीघा ज़मीन थी, जो उसकी कई पीढ़ियों की मेहनत का नतीजा थी। वह दिन-रात खेत में काम करता, फसल उगाता और अपने परिवार का पेट पालता। लेकिन पिछले साल सूखे ने उसकी कमर तोड़ दी थी। फसल नहीं हुई, और घर का खर्च चलाने के लिए उसे रामलाल से दो हज़ार रुपये कर्ज़ लेना पड़ा। रामलाल ने बड़े मीठे बोलों में कर्ज़ दिया था, “हरिया, चिंता मत कर। जब फसल होगी, चुकता कर देना। सूद बस मामूली सा है।”
हरिया को क्या पता था कि यह “मामूली सूद” उसकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा बोझ बन जाएगा।
सावन का महीना आया। इस बार बारिश अच्छी हुई, और हरिया के खेत लहलहाने लगे। धान की बालियाँ सोने की तरह चमक रही थीं। हरिया का चेहरा खिल उठा। उसने लक्ष्मी से कहा, “इस बार फसल अच्छी होगी। रामलाल का कर्ज़ चुकता कर दूँगा, और बच्चों के लिए नए कपड़े भी ले आऊँगा।” लक्ष्मी ने मुस्कुराते हुए कहा, “भगवान का शुक्र है। अब हमारे दिन फिरेंगे।”
लेकिन रामलाल की नज़र हरिया के खेतों पर थी। उसे पता था कि इस बार हरिया का कर्ज़ चुकाने का इरादा है। और यह बात उसे बिल्कुल गवारा नहीं थी। रामलाल को कर्ज़ चुकाने वाले किसान नहीं चाहिए थे; उसे चाहिए थी उनकी ज़मीन। उसने अपने मुंशी को बुलाया—एक दुबला-पतला, चालाक आदमी जिसका नाम था श्यामलाल।
“श्यामलाल,” रामलाल ने अपनी मोटी आवाज़ में कहा, “हरिया की फसल अच्छी होने वाली है। अगर उसने कर्ज़ चुकता कर दिया, तो मेरे हाथ से चार बीघा ज़मीन निकल जाएगी। कुछ करना होगा।”
श्यामलाल ने अपनी आँखें सिकोड़ते हुए कहा, “साहूकार जी, आप चिंता न करें। मैं एक तरकीब निकालता हूँ। हरिया का कर्ज़ चुकाना मुश्किल हो जाएगा।”
अगले दिन श्यामलाल गाँव में घूमने निकला। उसने गाँव वालों के बीच एक अफवाह फैलाई कि हरिया ने रामलाल से कर्ज़ तो लिया, लेकिन उसे चुकाने की नीयत नहीं है। उसने यह भी कहा कि हरिया की फसल को कोई कीड़ा लग गया है, और वह उसे बेचकर भागने की फिराक में है। गाँव वाले भोले थे; कुछ ने इस बात पर यकीन कर लिया।
उधर, हरिया अपनी फसल काटने की तैयारी कर रहा था। उसने सोचा कि फसल मंडी में बेचकर सबसे पहले रामलाल का कर्ज़ चुकाएगा। लेकिन एक रात अचानक कुछ हुआ, जिसने उसकी ज़िंदगी बदल दी।
रात का समय था। गाँव में सन्नाटा पसरा हुआ था। हरिया की झोपड़ी के पास कुछ लोग छिपे हुए थे। ये रामलाल के भेजे हुए गुंडे थे। उनके हाथ में मशालें थीं। उन्होंने हरिया के खेत के एक कोने में आग लगा दी। आग तेज़ी से फैली, और देखते ही देखते आधा खेत जलकर राख हो गया। हरिया और लक्ष्मी नींद से जागे, तो बाहर का मंज़र देखकर उनके होश उड़ गए। हरिया चीखा, “मेरी फसल! मेरी मेहनत!” वह पानी की बाल्टियाँ लेकर दौड़ा, लेकिन आग बुझाने में बहुत देर हो चुकी थी।
सुबह गाँव वाले इकट्ठा हुए। कुछ ने हरिया को सांत्वना दी, तो कुछ ने श्यामलाल की अफवाहों पर यकीन करते हुए कहा, “शायद हरिया ने खुद आग लगाई हो, ताकि कर्ज़ न चुकाना पड़े।” हरिया यह सुनकर टूट गया। उसने कहा, “मैंने अपनी मेहनत से यह फसल उगाई थी। भला मैं क्यों जलाऊँगा?”
लेकिन रामलाल को मौका मिल गया। वह हरिया के पास पहुँचा और नाटक करते हुए बोला, “हरिया, यह तो बहुत बुरा हुआ। अब तुम कर्ज़ कैसे चुकाओगे? सूद के साथ अब तक चार हज़ार रुपये हो गए हैं। अगर नहीं चुका सकते, तो अपनी ज़मीन मेरे नाम कर दो। मैं कर्ज़ माफ कर दूँगा।”
हरिया का दिल बैठ गया। उसने कहा, “साहूकार जी, मुझे कुछ दिन की मोहलत दें। मैं मज़दूरी करूँगा, कुछ न कुछ इंतज़ाम करूँगा।” लेकिन रामलाल को मोहलत देना मंज़ूर नहीं था। उसने कहा, “या तो ज़मीन दो, या पंचायत में चलो।”
पंचायत बुलाई गई। गाँव के बुजुर्ग और सम्मानित लोग बरगद के पेड़ के नीचे इकट्ठा हुए। रामलाल ने अपनी बात रखी, “हरिया ने मुझसे कर्ज़ लिया था। अब वह चुकाने से मुकर रहा है। उसकी फसल जल गई, यह उसकी गलती है। मेरे पैसे का क्या होगा?”
हरिया ने रोते हुए कहा, “मैंने कर्ज़ लिया था, यह सच है। लेकिन मेरी फसल किसी ने जलाई। मैं मेहनत करके पैसा चुकाना चाहता हूँ। मुझे बस थोड़ा वक्त चाहिए।”
पंचायत में बहस छिड़ गई। कुछ लोग हरिया के पक्ष में थे, तो कुछ रामलाल की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गए। तभी एक अनपेक्षित शख्स सामने आया—गाँव का मंगलू चमार। मंगलू एक गरीब चमार था, जो चुपचाप अपनी ज़िंदगी जीता था। उसने कहा, “मैंने उस रात कुछ लोगों को हरिया के खेत के पास देखा था। उनके हाथ में मशालें थीं। वे रामलाल के आदमी थे।”
यह सुनकर गाँव में हड़कंप मच गया। रामलाल गुस्से से लाल हो गया और चिल्लाया, “यह झूठ है! मंगलू मेरे खिलाफ साज़िश कर रहा है।” लेकिन मंगलू डरा नहीं। उसने कहा, “मैं सच कह रहा हूँ। मेरे पास सबूत भी है। मैंने एक मशाल का टुकड़ा उठा लिया था, जो खेत के पास गिरा था। उस पर रामलाल की हवेली का निशान है।”
पंचायत के लोग हैरान रह गए। मंगलू ने वह टुकड़ा दिखाया—लकड़ी पर “रामलाल” का नाम खुदा हुआ था। यह देखकर रामलाल का चेहरा पीला पड़ गया। गाँव के मुखिया ने कहा, “रामलाल, यह क्या साज़िश है? तुमने हरिया को बर्बाद करने की कोशिश की।”
रामलाल ने सफाई देने की कोशिश की, लेकिन अब कोई उसकी बात मानने को तैयार नहीं था। पंचायत ने फैसला सुनाया—हरिया का कर्ज़ माफ किया जाए, और रामलाल को हरिया के नुकसान की भरपाई के लिए दो हज़ार रुपये देने होंगे। साथ ही, गाँव वालों ने रामलाल को चेतावनी दी कि अगर उसने फिर ऐसी साज़िश की, तो उसे गाँव से निकाल दिया जाएगा।
हरिया की आँखों में आँसू थे, लेकिन इस बार खुशी के। उसने मंगलू को गले लगाया और कहा, “तूने मेरी ज़िंदगी बचा ली।” मंगलू ने मुस्कुराते हुए कहा, “हरिया भैया, गाँव के लोग एक-दूसरे के लिए ही तो हैं।”
रामलाल अपनी हवेली में अकेला बैठा था। उसकी साज़िश नाकाम हो गई थी, और उसका रौब भी जाता रहा। गाँव वालों ने आपस में एकजुटता दिखाई, और हरिया को फिर से अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका मिला। लक्ष्मी ने बच्चों को गले लगाया और कहा, “अब सब ठीक हो जाएगा।”
सुखपुर में फिर से शांति लौट आई। बरगद का पेड़ चुपचाप यह सब देख रहा था, जैसे कह रहा हो—सच्चाई और मेहनत की हमेशा जीत होती है।