गुल्ली-डंडा का खेल (Gulli Danda Ka Khel Kahani)

गुल्ली-डंडा का खेल (Gulli Danda Ka Khel Kahani)

“गुल्ली-डंडा का खेल – एक रोचक हिंदी कहानी (Hindi Kahani) जो चंदनपुर गाँव के दो बच्चों, छोटू और बबलू, के बीच खेल, झगड़े और दोस्ती की भावनाओं को बयां करती है। मुनशी प्रेमचंद की शैली में लिखी यह कहानी (Story in Hindi) सामाजिक यथार्थ और मासूमियत का सुंदर चित्रण है।”

गुल्ली-डंडा का खेल (Gulli Danda Ka Khel Kahani)

गाँव का नाम था चंदनपुर। चारों तरफ हरे-भरे खेत, बीच में एक पुराना बरगद का पेड़ और उसके नीचे मिट्टी का मैदान, जहाँ बच्चे दिनभर गुल्ली-डंडा खेलते। गर्मियों की दोपहर हो या सर्दियों की सुबह, उस मैदान में हमेशा हँसी-ठिठोली और चीख-पुकार गूँजती रहती। गुल्ली-डंडा सिर्फ एक खेल नहीं था, बल्कि गाँव के बच्चों की ज़िंदगी का हिस्सा था। उसमें नन्हे-मुन्नों की शरारतें थीं, बड़े-बूढ़ों की यादें थीं और सबसे बढ़कर, दोस्ती का वो रंग था जो शहरों की चकाचौंध में कहीं खो गया था।

इसी गाँव में रहता था छोटू। बारह साल का दुबला-पतला लड़का, जिसके चेहरे पर हमेशा एक शरारती मुस्कान रहती। छोटू के पिता रामदीन एक मज़दूर थे, जो सुबह से शाम तक खेतों में पसीना बहाते। माँ गायत्री घर संभालती और छोटू की शरारतों पर कभी डाँटती, कभी हँस पड़ती। छोटू को पढ़ाई से ज़्यादा गुल्ली-डंडे में मज़ा आता था। उसकी गुल्ली की नोक इतनी सटीक थी कि गाँव के बड़े लड़के भी उससे हार मानते।

एक दिन की बात है। गर्मियों की छुट्टियाँ चल रही थीं। दोपहर का समय था, सूरज आग उगल रहा था, लेकिन बरगद की छाँव में बच्चों का खेल जोरों पर था। छोटू अपनी टीम का सरदार था। दूसरी तरफ था बबलू, ठाकुर का बेटा। बबलू की उम्र छोटू से दो साल ज़्यादा थी, और उसका रौब भी कुछ ज़्यादा ही था। ठाकुर का गाँव में दबदबा था, सो बबलू को लगता था कि मैदान पर भी वही राज करेगा। उस दिन खेल में शर्त लगी थी—जो हारेगा, वो अगले दिन सबको अपने घर से मिठाई लाकर खिलाएगा।

खेल शुरू हुआ। छोटू ने गुल्ली को हवा में उछाला और डंडे से ऐसा मारा कि वो दूर खेत की मेड़ तक जा गिरी। बबलू की बारी आई। उसने भी पूरी ताकत लगाई, लेकिन गुल्ली पास ही गिर पड़ी। छोटू की टीम हँस पड़ी। बबलू का चेहरा लाल हो गया। उसने गुस्से में डंडा ज़मीन पर पटका और बोला, “ये खेल बेकार है। मैं नहीं खेलता।”

“हार मान ली क्या?” छोटू ने चिढ़ाते हुए कहा।
“हार? मैं ठाकुर का बेटा हूँ, किसी से नहीं हारता। तूने चालाकी की होगी,” बबलू चिल्लाया।
“चालाकी तो तेरे बाप के पास होगी, जो पटवारी को रिश्वत देकर खेत हड़पता है,” छोटू ने तपाक से जवाब दिया।

बस, फिर क्या था। बबलू ने छोटू को धक्का मारा। छोटू गिरते-गिरते बचा और उसने भी बबलू को जवाबी धक्का दे दिया। देखते ही देखते दोनों में हाथापाई शुरू हो गई। बाकी बच्चे डर के मारे पीछे हट गए। तभी बरगद के नीचे बैठे बूढ़े चौधरी ने लाठी ठोकते हुए दोनों को अलग किया। “बस करो, नासपीटों! खेल को लड़ाई में क्यों बदलते हो?”

दोनों शांत हुए, लेकिन मन में आग सुलग रही थी। बबलू ने छोटू को देखते हुए कहा, “देख लेना, तुझे सबक सिखाऊँगा।” छोटू ने मुस्कुराकर जवाब दिया, “मैदान पर मिल, डंडा लेकर।”

अगले दिन गाँव में हलचल मच गई। खबर फैल गई कि छोटू और बबलू के बीच फिर से गुल्ली-डंडे का मुकाबला होने वाला है। इस बार शर्त बड़ी थी—जो हारेगा, वो पूरे गाँव के सामने अपनी हार कबूल करेगा। ठाकुर को जब पता चला, तो उसने बबलू को समझाया, “देख बेटा, हमारा नाम दाँव पर है। हारना मत।” दूसरी तरफ, रामदीन ने छोटू से कहा, “खेल खेल में रहना चाहिए, बेटा। जीत-हार से क्या फर्क पड़ता है?” लेकिन छोटू के लिए ये अब सिर्फ खेल नहीं था, ये उसकी इज़्ज़त का सवाल था।

मैदान पर भीड़ जमा हो गई। बच्चे, बड़े, बूढ़े—सब देखने आए। छोटू ने अपनी पुरानी गुल्ली निकाली, जिसे उसने खुद तराशा था। बबलू नई चमचमाती गुल्ली और डंडा लाया था, जो शहर से मँगवाया गया था। खेल शुरू हुआ। छोटू ने पहली बारी में गुल्ली को इतनी दूर मारा कि बबलू को उसे ढूँढने में पसीने छूट गए। बबलू की बारी आई, उसने भी जोर लगाया, लेकिन गुल्ली फिर छोटू की गुल्ली से पीछे रह गई।

तीन चक्कर हुए। हर बार छोटू आगे रहा। बबलू का गुस्सा सातवें आसमान पर था। आखिरी चक्कर में उसने गुल्ली को हवा में उछाला और डंडे से मारा, लेकिन गुल्ली डंडे से टकराकर पास ही गिर पड़ी। भीड़ हँस पड़ी। बबलू ने गुस्से में डंडा तोड़ दिया और चिल्लाया, “ये सब धोखा है! तूने कुछ किया होगा।”

“धोखा तो तेरे पास है, जो हार नहीं बर्दाश्त कर सकता,” छोटू ने शांत स्वर में कहा।

तभी ठाकुर मैदान पर आ पहुँचा। उसने बबलू को पीछे खींचा और छोटू की तरफ देखते हुए बोला, “तूने मेरे बेटे को बेइज़्ज़त किया। इसका हिसाब होगा।” रामदीन भी वहाँ पहुँच गया। उसने हाथ जोड़कर कहा, “ठाकुर साहब, बच्चे हैं, खेल में ऐसा हो जाता है। माफ कर दीजिए।” लेकिन ठाकुर का गुस्सा ठंडा नहीं हुआ। उसने कहा, “रामदीन, अपने बेटे को समझा। अगली बार ऐसा हुआ तो गाँव में तुम्हारी जगह नहीं होगी।”

रात को छोटू घर लौटा। माँ ने उसे डाँटा, “क्यों लड़ता है, बेटा? ठाकुर से बैर मोल लेगा तो क्या होगा?” छोटू चुप रहा। उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसने गलत क्या किया। वो तो बस खेल रहा था।

कई दिन बीत गए। गाँव में सब कुछ सामान्य हो गया, लेकिन छोटू और बबलू के बीच की कड़वाहट बनी रही। एक दिन सुबह-सुबह छोटू खेत की ओर जा रहा था। रास्ते में उसे बबलू मिला। बबलू के हाथ में एक नया डंडा था। छोटू रुक गया। बबलू ने कहा, “एक बार फिर खेलेंगे?”

छोटू हँसा, “शर्त क्या है?”
“कोई शर्त नहीं। बस खेल,” बबलू ने कहा।

दोनों बरगद के नीचे पहुँचे। इस बार कोई भीड़ नहीं थी, कोई तमाशा नहीं था। सिर्फ दो लड़के और उनका खेल। छोटू ने गुल्ली उछाली, बबलू ने मारी। बबलू की गुल्ली छोटू से आगे गई। छोटू ने हँसकर कहा, “बढ़िया मारा।” बबलू भी मुस्कुराया। फिर बबलू की बारी आई। उसने गुल्ली को छोटू की गुल्ली से भी दूर मारा। दोनों हँस पड़े।

उस दिन कोई जीता, कोई हारा नहीं। बस गुल्ली-डंडा खेला गया। खेल खत्म होने के बाद बबलू ने कहा, “तू सच में अच्छा खेलता है।” छोटू ने जवाब दिया, “तू भी कम नहीं है।”

उसके बाद दोनों में दोस्ती हो गई। ठाकुर को जब पता चला, तो उसे गुस्सा तो आया, लेकिन बबलू की खुशी देखकर चुप रह गया। रामदीन ने भी छोटू को गले लगाया और कहा, “खेल से दोस्ती हुई, ये अच्छा है।”

गुल्ली-डंडा अब सिर्फ खेल नहीं रहा था। वो दो दिलों को जोड़ने का ज़रिया बन गया था। गाँव में फिर से हँसी गूँजने लगी, और बरगद का पेड़ खामोशी से सब देखता रहा।

 

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