विधवा की रोटी (Vidhva ki Roti Kahani)

“पढ़ें ‘विधवा की रोटी’ – गाँव काशीपुर की पार्वती, एक विधवा (vidhva ki kahani), अपनी मेहनत और आत्मसम्मान से जीवन जीती है। सूखे की मार और ठाकुर के बेटे रघुवीर के साथ उसका अनोखा रिश्ता कैसे बदलता है उसकी दुनिया।”
विधवा की रोटी (Vidhva ki Roti Kahani)
गंगा के किनारे बसा एक छोटा-सा गाँव था, नाम था काशीपुर। यहाँ की मिट्टी में मेहनत की महक थी और हवा में गंगा की ठंडक। गाँव के बीचों-बीच एक पुरानी हवेली थी, जो कभी ठाकुर साहब की शान हुआ करती थी, पर अब उसकी दीवारें समय के साथ झुक रही थीं। उसी हवेली के पास एक छोटी-सी झोपड़ी थी, जिसमें रहती थी पार्वती—एक विधवा, जिसकी उम्र पचास के पार हो चुकी थी। उसकी आँखों में उदासी थी, मगर चेहरे पर एक अजीब-सा तेज, जो मुश्किलों से लड़ने की कहानी कहता था।
पार्वती का पति रामदीन पाँच साल पहले एक बाढ़ में बह गया था। तब से वह अकेली थी। न बच्चे थे, न कोई सहारा। गाँव वाले उसे “बेवा” कहकर पुकारते थे, और कुछ तो उससे दूरी बनाकर रखते थे, मानो उसकी छाया भी अशुभ हो। लेकिन पार्वती ने कभी किसी से शिकायत नहीं की। वह सुबह-सुबह उठती, गंगा में स्नान करती, फिर पास के खेतों में मज़दूरी करने चली जाती। दोपहर को थोड़ा अनाज लेकर लौटती और रात को अपनी झोपड़ी में चूल्हा जलाती। उसकी रोटी सादी होती—बिना घी, बिना नमक की—मगर उसमें उसकी मेहनत का स्वाद था।
एक दिन गाँव में हलचल मच गई। ठाकुर साहब के छोटे बेटे, रघुवीर, शहर से लौटे थे। रघुवीर की उम्र कोई तीस साल की होगी। गोरा-चिट्टा, लंबा-चौड़ा, और आँखों में एक चमक जो शहर की चकाचौंध की गवाही देती थी। गाँव में खबर फैली कि वह अपनी शादी के लिए लड़की देखने आया है। ठाकुर साहब ने गाँव की चौपाल पर पंचायत बुलाई और ऐलान किया, “रघुवीर के लिए एक सुशील और सुंदर बहू चाहिए। जो परिवार हमें सम्मान देगा, उसे हम भी सम्मान देंगे।”
गाँव की कई लड़कियों के घरों में तैयारियाँ शुरू हो गईं। माँ-बाप अपनी बेटियों को सजाने में जुट गए। कोई गहने माँग रहा था, तो कोई नए कपड़े सिलवा रहा था। लेकिन पार्वती की झोपड़ी में सन्नाटा था। वह इन सब बातों से दूर, अपने काम में लगी रही। उसे क्या लेना-देना था ठाकुर के बेटे की शादी से? उसकी दुनिया तो उसकी रोटी तक सीमित थी।
कुछ दिनों बाद रघुवीर खुद गाँव में घूमने निकला। वह अपने दोस्तों के साथ हँसता-बतियाता हुआ गंगा के किनारे पहुँचा। वहाँ उसकी नज़र पार्वती पर पड़ी। पार्वती उस वक्त गंगा से पानी भर रही थी। उसकी साड़ी पुरानी थी, मगर साफ-सुथरी। बालों में सफेदी चमक रही थी, और हाथों में मेहनत की लकीरें साफ दिख रही थीं। रघुवीर ने अपने दोस्त से पूछा, “ये कौन है?”
“अरे, ये तो पार्वती बेवा है। रामदीन की बीवी थी। अब अकेली रहती है। गाँव में कोई उससे ज्यादा बात नहीं करता,” दोस्त ने हँसते हुए कहा।
रघुवीर कुछ देर उसे देखता रहा। फिर बोला, “इसकी हिम्मत तो देखो। अकेले कैसे जी रही है।”
उस दिन से रघुवीर के मन में पार्वती के लिए एक अजीब-सी उत्सुकता जागी। वह रोज़ गंगा किनारे आने लगा, और हर बार पार्वती को देखता। पार्वती को भी यह बात समझ आने लगी थी, मगर वह चुप रही। उसे लगा कि शायद यह ठाकुर का बेटा उसका मज़ाक उड़ाने आता है।
एक शाम, जब पार्वती खेत से लौट रही थी, रघुवीर उसके पास आया। उसने कहा, “पार्वती चाची, आप इतनी मेहनत क्यों करती हैं? कोई सहारा नहीं है क्या आपके पास?”
पार्वती ने उसे ठंडी नज़रों से देखा और बोली, “सहारा तो भगवान है, बेटा। और मेहनत इसलिए करती हूँ कि अपनी रोटी खुद कमा सकूँ। किसी की दया पर नहीं जीना चाहती।”
रघुवीर उसकी बात सुनकर चुप हो गया। फिर बोला, “आपकी बात में दम है, चाची। मगर गाँव में लोग आपके बारे में क्या-क्या कहते हैं, सुना है आपने?”
“सुना है,” पार्वती ने कहा, “मगर उनकी बातों से मेरी रोटी का स्वाद नहीं बदलता।”
रघुवीर को उसका जवाब पसंद आया। वह हर दिन पार्वती से मिलने आने लगा। कभी उसे पानी भरने में मदद करता, तो कभी उसके साथ खेत तक चल देता। गाँव वालों को यह सब अजीब लगने लगा। लोग कानाफूसी करने लगे, “ठाकुर का बेटा बेवा के चक्कर में पड़ गया है क्या?”
एक दिन ठाकुर साहब को यह बात पता चली। उन्होंने रघुवीर को बुलाया और गुस्से में कहा, “ये क्या तमाशा कर रहे हो? उस बेवा के साथ घूमते हो, लोग क्या कहेंगे? हमारा सम्मान मिट्टी में मिला दोगे?”
रघुवीर ने शांत स्वर में कहा, “बाबूजी, पार्वती चाची में जो हिम्मत और ईमानदारी है, वो किसी और में नहीं दिखी मुझे। मैं उसकी मदद करना चाहता हूँ, इसमें गलत क्या है?”
“मदद?” ठाकुर साहब चिल्लाए, “उसके लिए गाँव में और लोग हैं। तू हमारा नाम क्यों डुबो रहा है? उससे दूर रह, वरना अच्छा नहीं होगा।”
रघुवीर ने सिर झुका लिया, मगर उसके मन में कुछ और ही चल रहा था। वह पार्वती को अब सिर्फ एक विधवा नहीं, बल्कि एक मज़बूत औरत के रूप में देखने लगा था। उसने सोचा कि वह उसकी ज़िंदगी में कुछ बदलाव ला सकता है।
कुछ दिनों बाद गाँव में सूखे की मार पड़ी। खेत सूख गए, अनाज कम होने लगा। गाँव वाले परेशान थे। ठाकुर साहब ने अपने गोदाम से अनाज निकालकर बाँटना शुरू किया, मगर शर्त रखी कि जो उनके लिए काम करेगा, वही अनाज पाएगा। पार्वती भी लाइन में लगी, मगर जब उसकी बारी आई, ठाकुर साहब ने उसे देखकर मुँह फेर लिया। बोले, “तू यहाँ से चली जा। तेरे लिए कुछ नहीं है।”
पार्वती चुपचाप लौट आई। उस रात उसने भूखे पेट सोने की ठानी। मगर सुबह होते ही रघुवीर उसकी झोपड़ी पर पहुँचा। उसके हाथ में एक थैला था, जिसमें चावल, आटा और थोड़ा-सा घी था। उसने कहा, “चाची, ये लीजिए। अब से आप भूखी नहीं रहेंगी।”
पार्वती ने थैला देखा और बोली, “ये सब मुझे क्यों दे रहे हो, बेटा? मैं तो तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर सकती।”
रघुवीर मुस्कुराया, “चाची, आपने मुझे सिखाया कि रोटी की कीमत क्या होती है। ये मेरा तरीका है आपको सम्मान देने का।”
पार्वती की आँखों में आँसू आ गए। उसने थैला ले लिया और कहा, “ठीक है, बेटा। मगर ये मत भूलना कि अपनी रोटी कमाना ही मेरी शान है।”
उस दिन से रघुवीर और पार्वती के बीच एक अनोखा रिश्ता बन गया। रघुवीर ने अपने बाबूजी को समझाया कि सम्मान सिर्फ ऊँचे खानदान में नहीं, मेहनत और ईमानदारी में भी होता है। धीरे-धीरे गाँव वालों का नज़रिया भी बदला। पार्वती अब सिर्फ “बेवा” नहीं थी—वह गाँव की एक मिसाल बन गई थी।
और उसकी रोटी, जो पहले सादी और सूखी थी, अब घी की खुशबू से महकने लगी। मगर स्वाद वही रहा—मेहनत का, हिम्मत का, और आत्मसम्मान का।
कहानी यहीं खत्म होती है। पार्वती की ज़िंदगी में आए इस बदलाव ने न सिर्फ उसे, बल्कि पूरे गाँव को एक सबक दिया—कि इंसान की कीमत उसके हालात से नहीं, उसके हौसले से तय होती है।