दहेज का लालच (Dahej ka Lalach Village Story in Hindi)

dahej ka laalach village story

गाँव का नाम था सुखपुर। नाम के विपरीत, यहाँ सुख कम और दुख की कहानियाँ ज़्यादा थीं। गाँव के बीचों-बीच एक पुराना बरगद का पेड़ था, जिसके नीचे चौपाल लगती थी। यहीं गाँव के सारे फैसले होते, शादियाँ तय होतीं और कभी-कभी दिल भी टूटते। इन्हीं में से एक थी रामदुलारी की कहानी, जिसके इर्द-गिर्द गाँव के लोग आजकल खुसुर-पुसुर कर बातें करते थे।

रामदुलारी, चौधरी हरदयाल की इकलौती बेटी, गाँव की सबसे सुंदर और सुशील लड़की थी। उसकी आँखों में मासूमियत थी और चाल में सादगी। पढ़ाई में भी वह तेज़ थी, और गाँव के स्कूल में मास्टर जी उसकी तारीफ करते नहीं थकते थे। लेकिन जैसे-जैसे वह जवान हुई, हरदयाल के मन में एक चिंता घर करने लगी—उसकी शादी। गाँव में यह रिवाज था कि बेटी की शादी में जितना दहेज दिया जाए, उतनी ही इज्जत बढ़ती थी। हरदयाल, जो गाँव का मुखिया भी था, इस रिवाज को तोड़ना नहीं चाहता था। वह चाहता था कि उसकी बेटी की शादी ऐसी हो कि गाँव के लोग सालों तक बात करें।

एक दिन चौपाल पर बैठे हुए हरदयाल ने अपने दोस्त लाला रामस्वरूप से बात छेड़ी, “लाला, रामदुलारी की उम्र अब शादी लायक हो गई है। कोई अच्छा लड़का देखो, लेकिन ऐसा हो जो हमारे रुतबे के बराबर हो।” लाला ने मुस्कुराते हुए कहा, “चौधरी, तुम्हारी बेटी के लिए तो शहर के रईस भी लाइन लगाएँगे। लेकिन दहेज की बात तो सोच लो। आजकल अच्छे घराने वाले लड़के मोटा दहेज माँगते हैं।”

हरदयाल का चेहरा सख्त हो गया। “दहेज की चिंता मत करो, लाला। मेरी बेटी की शादी में कोई कमी नहीं रहेगी। गाँव में मेरी इज्जत है, और मैं उसे कायम रखूँगा।” लाला ने सिर हिलाया, लेकिन मन ही मन सोच रहा था कि हरदयाल की यह ज़िद कहीं उसकी बेटी के लिए मुसीबत न बन जाए।

कुछ दिनों बाद लाला रामस्वरूप ने एक रिश्ता लेकर हरदयाल के पास पहुँचा। लड़का था श्यामलाल, जो पास के कस्बे में कपड़े का व्यापार करता था। श्यामलाल की माँ, गंगादेवी, एक सख्त मिजाज़ वाली औरत थी, जिसके लिए दहेज से बढ़कर कुछ नहीं था। लाला ने हरदयाल को बताया, “चौधरी, श्यामलाल पढ़ा-लिखा है, व्यापार अच्छा चलता है। लेकिन गंगादेवी ने साफ कहा है कि दहेज में एक लाख रुपये नकद, सोने के गहने, और घर का सारा सामान चाहिए।”

हरदयाल ने एक पल के लिए सोचा। एक लाख रुपये उसके लिए बड़ी रकम थी। उसकी जमा-पूँजी और खेतों की कमाई मिलाकर भी इतना इकट्ठा करना मुश्किल था। लेकिन उसने गर्व से सीना तानते हुए कहा, “लाला, तुम गंगादेवी से कह दो कि दहेज की कोई कमी नहीं होगी। मेरी बेटी की शादी धूमधाम से होगी।”

रामदुलारी को जब यह बात पता चली, तो वह घबरा गई। उसने अपने पिता से कहा, “बाबूजी, इतना दहेज देने की क्या ज़रूरत है? मैं तो सादगी से शादी करना चाहती हूँ। अगर लड़के वाले दहेज माँग रहे हैं, तो क्या वे मुझे सच्चे दिल से अपनाएँगे?” लेकिन हरदयाल ने उसकी बात अनसुनी कर दी। “बेटी, तू इन बातों में मत पड़। यह सब मेरी इज्जत का सवाल है। तू बस अपनी शादी की तैयारियाँ कर।”

शादी की तारीख तय हो गई। हरदयाल ने अपने खेत का एक हिस्सा बेच दिया और कर्ज लेकर दहेज की व्यवस्था की। गाँव में चर्चा होने लगी कि चौधरी हरदयाल अपनी बेटी की शादी में लाखों रुपये खर्च करने वाला है। कुछ लोग उसकी तारीफ करते, तो कुछ कहते, “यह दहेज का लालच ही चौधरी को ले डूबेगा।”

शादी का दिन आया। गाँव में मंगल गीत गूँज रहे थे। रामदुलारी दुल्हन के जोड़े में ऐसी लग रही थी मानो कोई अप्सरा धरती पर उतर आई हो। लेकिन उसके चेहरे पर उदासी थी। वह जानती थी कि यह शादी उसके पिता की ज़िद और दहेज के लालच की बुनियाद पर हो रही थी। बारात आई, और श्यामलाल घोड़ी पर सवार होकर दरवाजे पर उतरा। गंगादेवी ने दहेज का सामान देखा और संतुष्ट होकर सिर हिलाया। शादी की रस्में पूरी हुईं, और रामदुलारी विदा होकर ससुराल चली गई।

लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। ससुराल में रामदुलारी का स्वागत ठंडा था। गंगादेवी को दहेज तो मिल गया, लेकिन उसका लालच अभी खत्म नहीं हुआ था। वह हर दिन रामदुलारी को ताने मारती, “तुम्हारे बाप ने इतना दहेज दिया, लेकिन क्या यह हमारे रुतबे के लायक है? शहर में तो लोग कार और फ्लैट देते हैं।” श्यामलाल भी अपनी माँ के सामने चुप रहता। वह रामदुलारी से प्यार तो करता था, लेकिन माँ के दबाव में उसका प्यार दब जाता।

रामदुलारी ने ससुराल में हर काम मेहनत से किया। वह सुबह उठकर घर सँभालती, खाना बनाती, और गंगादेवी की हर बात मानती। लेकिन गंगादेवी का व्यवहार दिन-ब-दिन और सख्त होता गया। एक दिन उसने रामदुलारी से कहा, “तुम अपने बाप से और पैसे माँगो। हमारे यहाँ एक और दुकान खोलनी है।” रामदुलारी का दिल टूट गया। उसने कहा, “माँ जी, बाबूजी ने मेरी शादी के लिए सब कुछ बेच दिया। अब उनके पास कुछ नहीं बचा।”

यह सुनकर गंगादेवी आग-बबूला हो गई। “तो तुम बेकार की बहू हो! अगर तुम्हारे बाप के पास पैसे नहीं, तो तुम्हें यहाँ रखने का क्या फायदा?” उस रात गंगादेवी ने श्यामलाल को बुलाकर कहा, “इस लड़की को वापस उसके मायके भेज दो। यह हमारे घर के लायक नहीं।”

रामदुलारी ने सारी बातें सुनीं। उसका दिल दुख से भर गया, लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी। उसने श्यामलाल से कहा, “अगर तुम्हें मेरे साथ रहना है, तो अपने दिल की सुनो। मैंने तुमसे प्यार किया है, दहेज से नहीं।” श्यामलाल के लिए यह पल फैसले का था। उसने अपनी माँ से कहा, “माँ, रामदुलारी मेरी पत्नी है। मैं उसे नहीं छोड़ूँगा। अगर आपको दहेज चाहिए था, तो शादी से पहले सोचना चाहिए था।”

गंगादेवी को यह बात नागवार गुज़री। उसने श्यामलाल को घर से निकालने की धमकी दी। लेकिन श्यामलाल ने हिम्मत दिखाई। उसने रामदुलारी का हाथ थामा और कहा, “हम अपना घर अलग बसाएँगे।” दोनों ने कस्बे में एक छोटा-सा मकान किराए पर लिया और मेहनत से नई ज़िंदगी शुरू की। श्यामलाल ने अपनी दुकान को और मेहनत से चलाया, और रामदुलारी ने घर सँभालने के साथ-साथ बच्चों को पढ़ाना शुरू किया।

उधर, सुखपुर में हरदयाल को जब यह सब पता चला, तो वह गहरे पश्चाताप में डूब गया। उसने सोचा कि अगर वह दहेज के लालच में न पड़ता, तो उसकी बेटी को इतना दुख न सहना पड़ता। उसने गाँव की चौपाल पर सबके सामने अपनी गलती स्वीकारी और कहा, “मैंने अपनी बेटी की ज़िंदगी दहेज के लालच में दाँव पर लगा दी। अब मैं चाहता हूँ कि कोई और बाप मेरी गलती न दोहराए।”

गाँव में यह बात फैल गई। कुछ लोग हरदयाल की हिम्मत की तारीफ करने लगे, तो कुछ ने दहेज के खिलाफ आवाज़ उठानी शुरू की। रामदुलारी और श्यामलाल की मेहनत रंग लाई, और कुछ सालों बाद उनका छोटा-सा घर खुशियों से भर गया। गंगादेवी, जो अकेली रह गई थी, को भी अपनी गलती का अहसास हुआ। उसने एक दिन रामदुलारी से माफी माँगी और अपने बेटे-बहू के साथ रहने की इच्छा जताई।

रामदुलारी ने मुस्कुराते हुए कहा, “माँ जी, अब लालच छोड़ दीजिए। सच्चा सुख प्यार और मेहनत में है।” गंगादेवी की आँखों में आँसू थे, लेकिन इस बार वे पश्चाताप के थे, न कि लालच के।

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