जमींदार की हवेली (Jamindar ki haweli kahani)

सूरज ढल चुका था और गाँव की गलियों में सन्नाटा पसरने लगा था। दूर-दूर तक खेतों की हरियाली और उसमें बिखरे हुए छोटे-छोटे घर नज़र आते थे। लेकिन इन सबके बीच एक विशाल हवेली अपनी भव्यता के साथ खड़ी थी—जमींदार की हवेली। उसकी ऊँची दीवारें, नक्काशीदार दरवाजे और पुरानी ईंटों का रंग गाँव वालों के लिए एक रहस्य की तरह था। कोई उस हवेली के पास जाने की हिम्मत नहीं करता था, न बच्चों का शोर वहाँ सुनाई देता था, न किसी की हँसी। बस एक ठंडी हवा थी, जो उसकी खामोशी को और गहरी करती थी।
गाँव में जमींदार ठाकुर रघुवीर सिंह का नाम बड़े सम्मान और डर के साथ लिया जाता था। उनके पिता, ठाकुर जय सिंह, अपने समय के सबसे बड़े जमींदार थे। उनकी हवेली में कभी नौकर-चाकरों की भीड़ रहती थी, मेहमानों का आना-जाना लगा रहता था, और हर त्योहार पर गाँव वालों को मिठाई बाँटी जाती थी। लेकिन अब वह हवेली एक भुतहा खंडहर सी लगती थी। रघुवीर सिंह की एकमात्र संतान, उनकी बेटी सावित्री, कई साल पहले गायब हो गई थी। कुछ कहते थे कि वह भाग गई, कुछ का मानना था कि उसे किसी ने मार डाला। सच क्या था, यह कोई नहीं जानता था। बस, उस दिन के बाद से ठाकुर साहब ने हवेली के दरवाजे गाँव वालों के लिए बंद कर दिए थे।
गाँव का एक नौजवान, रामू, उस हवेली के रहस्य से हमेशा आकर्षित रहता था। वह गरीब किसान का बेटा था, जिसके पास न खेत थे, न पैसा। उसकी माँ उसे हमेशा समझाती, “रामू, उस हवेली के पास मत जाना। वहाँ भूतों का डेरा है।” लेकिन रामू की जिज्ञासा उसकी माँ की चेतावनी से बड़ी थी। एक दिन, जब गाँव में मेला लगा और सब लोग वहाँ मस्ती में डूबे थे, रामू ने सोचा कि यह मौका अच्छा है। वह चुपचाप हवेली की ओर निकल पड़ा।
हवेली का मुख्य दरवाजा जर्जर हो चुका था। लकड़ी पर जाले लटक रहे थे, और उसकी कीलें जंग खा चुकी थीं। रामू ने हिम्मत जुटाई और दरवाजे को धक्का दिया। एक तेज़ चरमराहट के साथ वह खुल गया। अंदर का नज़ारा और भी डरावना था—धूल से भरी दीवारें, टूटी हुई मूर्तियाँ, और पुराने फर्नीचर जो अब सिर्फ कबाड़ बन चुके थे। हवेली की छत से पानी टपक रहा था, और हवा के साथ आने वाली साँय-साँय की आवाज़ किसी के रोने जैसी लगती थी।
रामू ने अपने कदम आगे बढ़ाए। उसे लगा कि शायद हवेली में कोई रहता हो। उसने ऊँची आवाज़ में पुकारा, “कोई है यहाँ?” उसकी आवाज़ गूँज बनकर लौटी, लेकिन जवाब नहीं आया। तभी उसकी नज़र एक पुराने चित्र पर पड़ी। उसमें एक खूबसूरत लड़की की तस्वीर थी, जिसके चेहरे पर उदासी छाई हुई थी। रामू को लगा कि वह सावित्री हो सकती है। उसने चित्र को हाथ में लिया और उसे देखने लगा। तभी पीछे से एक भारी आवाज़ गूँजी, “कौन है वहाँ?”
रामू घबरा गया। उसने पीछे मुड़कर देखा तो ठाकुर रघुवीर सिंह खड़े थे। उनकी आँखें लाल थीं, चेहरा पीला पड़ चुका था, और हाथ में एक पुरानी बंदूक थी। रामू ने डरते हुए कहा, “ठाकुर साहब, मैं… मैं बस यहाँ देखने आया था। मेरा कोई बुरा इरादा नहीं है।” ठाकुर ने उसे घूरते हुए कहा, “यहाँ क्या देखने आए हो? यह हवेली मर चुकी है, जैसे मैं मर चुका हूँ।”
रामू ने हिम्मत करके पूछा, “सावित्री जी कहाँ हैं, ठाकुर साहब? गाँव में सब कहते हैं कि…” ठाकुर ने उसे बीच में रोक दिया। उनकी आवाज़ में गुस्सा और दर्द दोनों थे। “सावित्री मेरी बेटी थी। मेरी इज़्ज़त थी। लेकिन उसने मेरे खिलाफ जाकर एक ग़रीब लड़के से प्यार किया। मैंने उसे रोकने की कोशिश की, पर वह नहीं मानी। एक रात वह भाग गई। उसके बाद मैंने उसे कभी नहीं देखा।”
रामू चुपचाप सुनता रहा। ठाकुर की आँखों में आँसू थे, जो शायद सालों से दबे हुए थे। उन्होंने आगे कहा, “मैंने उसे ढूँढने की बहुत कोशिश की। गाँव वालों ने कहा कि वह मर गई, लेकिन मुझे यकीन नहीं हुआ। यह हवेली उसी का इंतज़ार कर रही है।” रामू को लगा कि ठाकुर का गुस्सा अब दुख में बदल चुका है। उसने कहा, “ठाकुर साहब, अगर सावित्री जी ज़िंदा हैं, तो शायद वह लौट आएँ। आपको गाँव वालों से मदद लेनी चाहिए।”
ठाकुर ने उसकी बात को अनसुना कर दिया। उन्होंने बंदूक नीचे रखी और कहा, “तू जा यहाँ से। यह हवेली अब सिर्फ मेरे लिए सजा है।” रामू कुछ और कहना चाहता था, लेकिन ठाकुर का चेहरा देखकर वह चुप हो गया। वह हवेली से बाहर निकला और गाँव की ओर चल पड़ा।
रास्ते में उसे एक बूढ़ी औरत मिली, जो गाँव की सबसे बुजुर्ग महिला थी। उसका नाम गंगा माई था। रामू ने उसे सारी बात बताई। गंगा माई ने गहरी साँस ली और कहा, “बेटा, सावित्री ज़िंदा है। वह पास के शहर में रहती है। उसने एक मज़दूर से शादी की थी, और अब उसके दो बच्चे हैं। लेकिन वह यहाँ कभी नहीं लौटेगी। ठाकुर के गुस्से ने उसे गाँव से हमेशा के लिए दूर कर दिया।”
रामू हैरान था। उसने पूछा, “तो आपने ठाकुर साहब को यह क्यों नहीं बताया?” गंगा माई ने कहा, “ठाकुर को सच सुनने की हिम्मत नहीं है। वह अपनी इज़्ज़त को अपनी बेटी से ऊपर रखते हैं। अगर उन्हें पता चला कि सावित्री खुशहाल है, तो उनकी दुनिया और टूट जाएगी।”
रामू ने उस रात बहुत सोचा। उसे समझ नहीं आया कि ठाकुर का दुख सच्चा था या उनका अहंकार। अगले दिन उसने गाँव वालों को हवेली की बात बताई। कुछ लोगों ने कहा कि ठाकुर को सच बता देना चाहिए, ताकि वह अपनी बेटी को माफ कर दें। लेकिन ज्यादातर ने कहा, “ठाकुर का गुस्सा हमें भी भारी पड़ सकता है। चुप रहो, रामू।”
कई दिन बीत गए। एक रात रामू ने सपना देखा कि सावित्री हवेली के दरवाजे पर खड़ी है और अपने पिता को पुकार रही है। सुबह वह फिर हवेली की ओर गया। इस बार ठाकुर बाहर बरामदे में बैठे थे। रामू ने हिम्मत करके कहा, “ठाकुर साहब, सावित्री जी शहर में हैं। वह खुश हैं। आपको उनसे मिलना चाहिए।”
ठाकुर ने पहले तो उसे घूरा, फिर धीरे से कहा, “क्या वह सचमुच खुश है?” रामू ने हाँ में सिर हिलाया। ठाकुर की आँखों में एक अजीब सी चमक आई। उन्होंने कहा, “फिर मुझे यहाँ से जाना होगा। यह हवेली अब मेरे लिए बोझ है।”
अगले दिन गाँव वालों ने देखा कि ठाकुर रघुवीर सिंह अपनी हवेली का ताला खोलकर शहर की ओर निकल गए। कोई नहीं जानता कि वह सावित्री से मिले या नहीं। लेकिन उस दिन के बाद हवेली के दरवाजे फिर कभी बंद नहीं हुए। गाँव के बच्चे वहाँ खेलने लगे, और उसकी दीवारों में फिर से हँसी की गूँज सुनाई देने लगी। जमींदार की हवेली, जो कभी अभिशाप थी, अब गाँव का हिस्सा बन गई।
रामू को लगा कि शायद उसने ठाकुर को उनके दुख से आज़ाद कर दिया। लेकिन सच क्या था, यह सिर्फ हवेली की दीवारें जानती थीं