चक्की का पत्थर (Chakki ka Patthar Village Kahani)

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चक्की का पत्थर (Chakki ka Patthar Village Kahani)

गंगा के किनारे बसा था छोटा-सा गाँव सुखनपुर। न गाँव में बिजली की चकाचौंध थी, न सड़कों का जाल। बस, खेत-खलिहान, कच्चे मकान और गंगा का साफ पानी ही इसकी शान थे। गाँव के बीचों-बीच थी रामदीन की चक्की। पुरानी, लकड़ी की बनी, जिसके पत्थर इतने घिस चुके थे कि अब अनाज पीसते वक्त वे कराहने लगते थे। लेकिन रामदीन की मेहनत और उसकी चक्की की खनक गाँव की रग-रग में बसी थी।

रामदीन की उम्र अब पचास के पार थी। जवानी में वह गाँव का सबसे बलशाली पुरुष हुआ करता था। बैल की तरह ताकत थी उसमें, और मन इतना साफ कि कोई उसकी बात को टाल नहीं सकता था। लेकिन समय ने उसकी कमर झुका दी थी। चक्की के पत्थर को घुमाते-घुमाते उसकी हथेलियाँ पत्थर-सी सख्त हो गई थीं। उसकी पत्नी गंगा, जो कभी गाँव की सबसे सुंदर बहू थी, अब बीमारी के कारण बिस्तर पकड़ चुकी थी। उनके इकलौते बेटे रमेश ने गाँव छोड़कर शहर में नौकरी पकड़ ली थी। साल में एकाध बार चिट्ठी आती, जिसमें लिखा होता—’बाबूजी, पैसे भेज रहा हूँ, माँ का इलाज करवाना।’ लेकिन पैसे कभी वक्त पर न आते, और गंगा की साँसें दिन-ब-दिन भारी होती जातीं।

रामदीन की चक्की गाँव का दिल थी। सुबह से शाम तक लोग अनाज लेकर आते। कोई गेहूँ, कोई जौ, कोई मक्का। रामदीन हर किसी का अनाज पीसता, बदले में जो मिलता—दो मुट्ठी अनाज, एक प्याला दूध, या कभी-कभार चार पैसे। वह कभी किसी से झगड़ता नहीं था। उसकी चक्की के पास बैठकर गाँव वाले आपस में बतियाते, हँसते, और कभी-कभी अपनी तकलीफें भी बाँटते। रामदीन सुनता, मुस्कुराता, और चुपचाप पत्थर घुमाता रहता।

एक दिन की बात है, गाँव में खबर फैली कि पास के कस्बे में एक नई बिजली की चक्की लगी है। वह चक्की इतनी तेज थी कि घंटे भर में सैकड़ों किलो अनाज पीस देती थी। न उसमें मेहनत थी, न समय की बर्बादी। गाँव के कुछ लोग, खासकर नौजवान, उस चक्की की तारीफ करने लगे। “रामदीन की चक्की तो अब पुरानी हो गई,” ठाकुर के बेटे रघु ने चौपाल पर कहा। “कस्बे की चक्की में अनाज बारीक पीसता है, और आटा भी साफ निकलता है।”

रामदीन ने यह बात सुनी तो मन ही मन उदास हुआ। लेकिन उसने कुछ कहा नहीं। वह सोचता, “लोगों को जो अच्छा लगे, वही करें। मैं तो अपनी चक्की चलाता रहूँगा।” मगर धीरे-धीरे गाँव वालों का आना कम होने लगा। पहले जहाँ दिन भर चक्की के पास भीड़ रहती थी, अब दोपहर तक इक्का-दुक्का लोग ही आते। रामदीन की कमाई घटने लगी। गंगा का इलाज करवाना मुश्किल होने लगा। वैद्य ने साफ कह दिया था, “अब शहर के बड़े हस्पताल में ले जाओ, नहीं तो…” रामदीन सुनकर चुप हो गया। उसके पास इतने पैसे कहाँ थे?

एक रात, जब गंगा को तेज बुखार चढ़ा, रामदीन रात भर उसकी सिरहाने बैठा रहा। गंगा ने कमजोर आवाज में कहा, “रामदीन, मुझे मालूम है, मेरे दिन अब कम हैं। लेकिन तुम अपने को मत तोड़ना। यह चक्की तुम्हारी मेहनत की निशानी है। इसे मत छोड़ना।” रामदीन की आँखें भर आईं। उसने गंगा का हाथ थामकर कहा, “तुम चिंता मत करो। मैं सब ठीक कर दूँगा।”

अगले दिन रामदीन ने फैसला किया कि वह कस्बे की चक्की का मालिक बनवारी से बात करेगा। शायद वह कुछ मदद कर दे। रामदीन ने अपनी पुरानी धोती पहनी, सिर पर पगड़ी बाँधी, और कस्बे की ओर चल पड़ा। रास्ते में वह सोचता रहा कि बनवारी से क्या कहेगा। बनवारी गाँव का ही था, लेकिन अब कस्बे में उसका रुतबा था। लोग कहते थे कि वह पैसे का लालची है, मगर रामदीन को यकीन था कि वह उसकी बात सुनेगा।

कस्बे में बनवारी की चक्की देखकर रामदीन दंग रह गया। लोहे की बड़ी-बड़ी मशीनें, बिजली की तेज रोशनी, और चारों ओर अनाज के बोरे। बनवारी एक कुर्सी पर बैठा हिसाब-किताब कर रहा था। रामदीन ने झिझकते हुए उसे नमस्ते की। बनवारी ने ऊपर-नीचे देखा और बोला, “अरे, रामदीन! यहाँ कैसे?”

रामदीन ने अपनी बात शुरू की। उसने बताया कि गंगा बीमार है, कि उसकी चक्की अब कम चलती है, और कि उसे कुछ मदद चाहिए। बनवारी ने हँसते हुए कहा, “रामदीन, यह ज़माना बिजली का है। तुम्हारी चक्की अब पुरानी पड़ गई। अगर चाहो तो मेरे यहाँ काम कर लो। मैं तुम्हें मज़दूरी दे दूँगा।”

रामदीन का दिल टूट गया। उसने सोचा था कि बनवारी उसकी मदद करेगा, लेकिन यह तो उसकी चक्की को बेकार बता रहा था। उसने चुपचाप सिर झुकाया और वापस लौट आया। रास्ते में गंगा की बातें उसके कानों में गूँज रही थीं— “यह चक्की तुम्हारी मेहनत की निशानी है।”

घर पहुँचकर रामदीन ने चक्की के पास बैठकर पत्थर को छुआ। वह पत्थर, जिसे उसने सालों तक घुमाया था, अब भी वैसा ही था। उसने मन में ठान लिया कि वह अपनी चक्की नहीं छोड़ेगा। अगले दिन उसने गाँव वालों को बुलाया। चौपाल पर सबके सामने उसने कहा, “भाइयो, मेरी चक्की पुरानी है, मगर इसमें मेहनत और सच्चाई है। मैं आप सबके लिए अनाज पीसता हूँ, और अगर आप चाहें तो इसे फिर से चलाएँ।”

गाँव वालों ने उसकी बात सुनी। कुछ लोग हँसे, कुछ ने सिर हिलाया। लेकिन कुछ बुजुर्गों ने उसका साथ दिया। ठाकुर की बूढ़ी माँ ने कहा, “रामदीन की चक्की में बरकत है। कस्बे की चक्की में पैसे की चमक है, मगर रामदीन के आटे में स्वाद है।”

धीरे-धीरे कुछ लोग फिर से रामदीन की चक्की पर आने लगे। कोई अनाज लेकर आता, कोई गंगा के लिए दवा। रामदीन दिन-रात मेहनत करता। उसकी चक्की फिर से खनकने लगी। गंगा की तबीयत में भी सुधार होने लगा। एक दिन रमेश शहर से लौटा। उसने देखा कि उसके बापूजी की चक्की फिर से गाँव की शान बन रही थी। उसने रामदीन से माफी माँगी और कहा, “बाबूजी, मैं अब गाँव में ही रहूँगा। आपकी चक्की को मैं भी चलाऊँगा।”

रामदीन ने मुस्कुराकर उसका कंधा थपथपाया। उस रात, जब चक्की का पत्थर रुका, तो रामदीन ने गंगा के पास बैठकर कहा, “देखो, तुमने कहा था न कि यह चक्की मेरी मेहनत की निशानी है? आज यह फिर से जी उठी है।”

गंगा ने कमजोर मुस्कान के साथ उसका हाथ थामा। बाहर चाँदनी रात थी, और गंगा का पानी चुपचाप बह रहा था। रामदीन की चक्की का पत्थर, जो सालों तक गाँव की ज़िंदगी को पीसता रहा, अब भी गाँव के दिल में धड़क रहा था।

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