आखिरी पत्र (Akhiri Patra Emotional Hindi Kahani)

सर्दियों की एक ठंडी सुबह थी। गाँव के किनारे बनी छोटी-सी कुटिया में, दीवारों पर समय की धूल जमी थी। मेज पर एक पुराना लैंप टिमटिमा रहा था, और उसी के पास बैठी थी सावित्री, जिसके हाथों में काँपता हुआ एक कागज था। उसका चेहरा उम्र की लकीरों से भरा था, मगर आँखों में अभी भी वही चमक थी जो कभी उसके यौवन में थी। वह कागज कोई साधारण कागज नहीं था—वह एक पत्र था, उसका आखिरी पत्र।
सावित्री की जिंदगी कभी आसान नहीं रही। पति की मृत्यु के बाद, उसने अपने इकलौते बेटे, रमेश, को पालने के लिए दिन-रात मेहनत की। खेतों में काम, दूसरों के घरों में बर्तन माँजना, और रात को सिलाई मशीन की टिक-टिक के साथ उसने अपने सपनों को दफन कर दिया। रमेश उसका सबकुछ था। उसकी हँसी, उसकी शरारतें, और उसकी वो बातें कि “माँ, मैं बड़ा होकर तुम्हें बहुत सुख दूँगा।” सावित्री को लगता था कि ये वादा ही उसकी जिंदगी की रोशनी है।
लेकिन समय ने उस रोशनी को छीन लिया। रमेश बड़ा हुआ, शहर गया, और धीरे-धीरे उसकी चिट्ठियाँ कम होने लगीं। पहले हर हफ्ते, फिर हर महीने, और अब तो सालों बीत गए थे। सावित्री हर दिन डाकिए के आने का इंतजार करती, मगर हर बार निराशा ही हाथ लगती। गाँव वालों ने कहा, “सावित्री, अब छोड़ दे। शहर की चकाचौंध में बेटे माँ को भूल जाते हैं।” लेकिन सावित्री का दिल मानने को तैयार नहीं था।
उस सुबह, जब ठंड हड्डियों तक चुभ रही थी, सावित्री ने आखिरी बार कलम उठाई। उसने लिखना शुरू किया:
“मेरे प्यारे रमेश,
तुझे याद है, जब तू छोटा था, तो मेरे पास बैठकर कहता था कि माँ, मैं तुझे कभी नहीं छोडूँगा? मैं जानती हूँ, तू अब बड़ा हो गया है। तेरी दुनिया बदल गई है। शायद तुझे मेरी जरूरत नहीं रही। लेकिन बेटा, माँ का दिल तो वही पुराना है। मैं हर दिन तेरे लिए दुआ करती हूँ।
मेरी तबीयत अब ठीक नहीं रहती। डॉक्टर कहते हैं, ज्यादा दिन नहीं बचे। मैं तुझसे कोई शिकायत नहीं कर रही। बस, एक बार तुझे देखना चाहती हूँ। अगर तू आ सके, तो आ जाना। अगर न आए, तो भी कोई बात नहीं। ये पत्र मेरी आखिरी बात है। मैं तुझसे बहुत प्यार करती हूँ, हमेशा।
तेरी माँ, सावित्री”
पत्र पूरा होने के बाद, सावित्री ने उसे मोड़ा और पास के डाकघर तक चलकर दीया। उसकी साँसें भारी थीं, मगर दिल हल्का हो गया था। वह जानती थी कि शायद ये पत्र भी अनपढ़ा रह जाएगा, जैसे पिछले कई पत्र। लेकिन उसे विश्वास था कि उसका प्यार, उसका दर्द, किसी न किसी तरह रमेश तक पहुँचेगा।
कुछ हफ्तों बाद, गाँव में खबर आई कि सावित्री अब नहीं रही। उसकी कुटिया खाली थी, मगर मेज पर अभी भी वही पुराना लैंप जल रहा था। उसी दिन, डाकिए ने एक जवाबी पत्र लाया, जिस पर रमेश का नाम था। लेकिन अब उसे पढ़ने वाली आँखें नहीं थीं। पत्र में लिखा था, “माँ, मैं आ रहा हूँ। मुझे माफ कर दे।”
सावित्री का आखिरी पत्र अनुत्तरित नहीं था। लेकिन जवाब तब आया, जब समय ने सारी उम्मीदें छीन ली थीं।