बरात का इंतज़ार (Baraat ka Intejaar)

गाँव की हवा में ठंडक थी। माघ की सर्द रात थी और आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे। रामपुर गाँव के चौधरी रामलाल के घर में उमंग का माहौल था। उनकी इकलौती बेटी, शांति, की शादी थी। घर के आँगन में मंडप सजा था। रंग-बिरंगे फूलों की मालाएँ लटक रही थीं, और मिट्टी के दीयों की रोशनी से सारा घर जगमगा रहा था। गाँव के लोग इकट्ठा थे—कोई रसोई में मदद कर रहा था, तो कोई मेहमानों की आवभगत में जुटा था। लेकिन शांति के चेहरे पर उदासी थी। वह अपने कमरे में बैठी, अपनी चुनरी के किनारे से खेल रही थी। उसकी माँ, गंगा, बार-बार आकर पूछ रही थी, “शांति, कुछ खा ले बेटी, रात गहरी हो रही है।”

शांति का जवाब हमेशा एक हल्की-सी मुस्कान और सिर हिलाना होता। वह जानती थी कि उसकी शादी का दिन है, लेकिन उसका मन कहीं और था। बरात अभी तक नहीं आई थी। घड़ी की सुइयाँ रात के ग्यारह बजे को छू रही थीं, और चौधरी रामलाल का चेहरा गुस्से और चिंता से लाल हो रहा था। “यह क्या तमाशा है?” उन्होंने अपनी पत्नी से कहा, “बरात को आठ बजे तक पहुँच जाना चाहिए था। अब तक कोई खबर नहीं! क्या वह लोग हमें बेवकूफ समझते हैं?”

गंगा ने उन्हें शांत करने की कोशिश की, “धीरज रखो जी, रास्ते में देर हो गई होगी। लड़के वाले भले लोग हैं। बेकार में गुस्सा मत करो।” लेकिन रामलाल का गुस्सा कम होने का नाम नहीं ले रहा था। गाँव के कुछ बुजुर्गों ने सलाह दी कि लड़के वालों को फोन किया जाए। लेकिन फोन पर कोई जवाब नहीं मिला। अब गाँव में कानाफूसी शुरू हो गई थी। कुछ कह रहे थे, “लड़के ने शादी से मना कर दिया होगा।” तो कुछ बोले, “शायद रास्ते में कोई हादसा हो गया।”

शांति ने यह सब सुना। उसका दिल बैठ रहा था। वह अपने मंगेतर, सुरेश, को अच्छे से जानती थी। सुरेश पढ़ा-लिखा, शांत स्वभाव का लड़का था। उसने शांति से वादा किया था कि वह उसे हमेशा खुश रखेगा। लेकिन अब यह देरी और बरात का न आना शांति के मन में अजीब से सवाल खड़े कर रहा था। क्या सुरेश ने सचमुच उसे धोखा दिया? या फिर कोई और बात थी?

आँगन में बैठे गाँव के मुखिया, पंडित रामनाथ, ने रामलाल को बुलाया। “चौधरी, घबराओ मत। मैंने अपने भतीजे को बाइक से लड़के वालों के गाँव भेजा है। वह जल्दी ही खबर लाएगा।” रामलाल ने सिर हिलाया, लेकिन उनकी बेचैनी कम नहीं हुई। गंगा ने शांति को देखा, जो अब तक चुपचाप बैठी थी। उसने बेटी के पास जाकर उसका हाथ थामा। “बेटी, सब ठीक हो जाएगा। भगवान पर भरोसा रख।”

रात के बारह बज चुके थे। गाँव के लोग अब थकने लगे थे। मेहमानों का उत्साह भी कम हो रहा था। कुछ लोग खाना खाकर अपने घर लौटने की सोच रहे थे। तभी पंडित रामनाथ का भतीजा, मंगल, बाइक से लौटा। उसके चेहरे पर पसीना था और साँसें तेज चल रही थीं। उसने रामलाल को एक तरफ ले जाकर कुछ कहा। रामलाल का चेहरा और सख्त हो गया। उन्होंने गंगा को बुलाया और धीरे से बोले, “बरात रास्ते में रुक गई है। लड़के वालों ने कुछ शर्तें रखी हैं।”

गंगा का दिल धक् से रह गया। “कैसी शर्तें?” उसने पूछा। रामलाल ने गहरी साँस ली और बोले, “वे और दहेज माँग रहे हैं। कह रहे हैं कि अगर हमने पचास हज़ार रुपये और एक मोटरसाइकिल का इंतज़ाम नहीं किया, तो बरात वापस लौट जाएगी।”

यह सुनकर गंगा के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उसने शांति की तरफ देखा, जो अब तक कुछ नहीं बोली थी। गंगा को याद आया कि कैसे उन्होंने अपनी सारी जमा-पूँजी इस शादी में खर्च कर दी थी। गाय बेची थी, खेत का कुछ हिस्सा गिरवी रखा था, और गहने तक बेच दिए थे। अब और कहाँ से लाएँ? रामलाल ने गुस्से में कहा, “यह लालच है! मैं अपनी बेटी को ऐसे घर में नहीं भेजूँगा।”

लेकिन शांति, जो अब तक चुप थी, अचानक उठी। उसकी आँखों में आँसू थे, लेकिन चेहरे पर एक अजीब-सी दृढ़ता थी। “बाबूजी, माँ, आप लोग परेशान मत हो। मैं सुरेश से बात करना चाहती हूँ।” रामलाल ने गुस्से में कहा, “क्या बात करेगी? वह लड़का भी तो अपने बाप का ही बेटा है!” लेकिन शांति ने ज़िद की। आखिरकार, मंगल को फिर से बाइक लेकर लड़के वालों के पास भेजा गया, ताकि सुरेश को फोन पर बात करने के लिए कहा जाए।

कुछ देर बाद फोन आया। शांति ने फोन लिया और धीमी आवाज़ में बात शुरू की। दूसरी तरफ सुरेश था। उसकी आवाज़ में शर्मिंदगी थी। “शांति, मुझे माफ कर दो। मेरे बाबूजी ने यह सब मेरे खिलाफ जाकर किया। मैंने उनसे मना किया था, लेकिन…” शांति ने उसे बीच में रोका। “सुरेश, तुम सच बताओ। क्या तुम मुझसे शादी करना चाहते हो?” सुरेश ने तुरंत कहा, “हाँ, शांति। मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा।”

शांति ने फोन रखा और अपने माँ-बाप से कहा, “बाबूजी, सुरेश का इसमें कोई दोष नहीं है। उसके घरवाले लालच कर रहे हैं। लेकिन अगर हम अब शादी तोड़ देंगे, तो गाँव में मेरी इज़्ज़त का क्या होगा? लोग क्या कहेंगे? मैं नहीं चाहती कि आपकी नाक कटे।” रामलाल और गंगा एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। शांति ने आगे कहा, “मैंने सुरेश से कह दिया है कि वह अकेले आए। अगर वह मुझसे सच्चा प्यार करता है, तो उसे बरात की ज़रूरत नहीं।”

यह सुनकर रामलाल को गुस्सा तो आया, लेकिन गंगा ने उनकी बाँह पकड़कर रोका। “बेटी सही कह रही है। अगर लड़का सचमुच अच्छा है, तो हमें उसका साथ देना चाहिए।” गाँव के कुछ लोग शांति की बात सुनकर हैरान थे, तो कुछ ने उसकी हिम्मत की तारीफ की।

सुबह होने को थी। तभी दूर से एक बाइक की आवाज़ आई। सुरेश था। वह अकेले आया था। उसके कपड़े सादे थे, और चेहरे पर थकान थी। उसने रामलाल के सामने हाथ जोड़े और कहा, “चौधरी जी, मैं अपनी गलती नहीं मानता, क्योंकि मैंने कोई गलती की नहीं। मेरे बाबूजी गलत थे। मैं शांति को अपनी पत्नी बनाना चाहता हूँ। अगर आप इजाज़त दें, तो मैं उसे अभी ले जाऊँ।”

रामलाल का गुस्सा अब पिघल चुका था। उन्होंने सुरेश को गले लगाया और कहा, “बेटा, तुमने मेरी बेटी की इज़्ज़त रखी। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ।” गाँव के लोग, जो अब तक तमाशा देख रहे थे, तालियाँ बजाने लगे। शांति की आँखों में आँसू थे, लेकिन इस बार वे खुशी के थे।

मंडप में सादगी से शादी हुई। बरात का इंतज़ार खत्म हुआ, लेकिन उस इंतज़ार ने शांति को एक नई ताकत दी थी। उसने न सिर्फ अपने प्यार को बचाया, बल्कि गाँव की औरतों को भी एक नई राह दिखाई। गंगा ने अपनी बेटी को विदा किया, और रामलाल ने मन ही मन भगवान को धन्यवाद दिया कि उनकी बेटी को ऐसा जीवनसाथी मिला, जो लालच से ऊपर था।

गाँव में यह कहानी कई दिनों तक चर्चा का विषय रही। लोग कहते, “शांति ने बरात का इंतज़ार नहीं किया, उसने अपने भाग्य को खुद लिखा।”

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